आशा
मंथनात्मक कविता
हम कहते ”आशा जीवन है,
है बढ़ने को प्रेरित करती,
आशा का संबल पाकर ही,
जीवन अमरबेल है बढ़ती”.
”आशा कभी न मरती” सुनकर,
सपने बहुत संजोए,
कुछ पूरे कुछ आधे रह गए,
कुछ सपने ही खोए.
आशा को तृष्णा कहते हैं,
तृष्णा कभी न पूरी होती,
तृष्णा तो पूरी भी हो ले,
आशा मृगतृष्णा ही होती.
फिर भी आशा पर जग चलता,
आशा बिना विकास नहीं,
दैहिक-दैविक-भौतिक उन्नयन,
संभव आशा बिना नहीं.
आशा को इतना न बढ़ाओ,
आशा मृगतृष्णा बन जाए,
आशा के झूले में झूलते,
जीना ही दूभर हो जाए.
तेते पांव पसारो जेती,
लंबी सौर तुम्हारी,
आशा को तृष्णा न बनाओ,
महके प्रेम की क्यारी.
आशा जब तृष्णा और फिर मृगतृष्णा बन जाती है, तो जीवन जीना दूभर हो जाता है.