मुआवजा
किसी भी पीड़ित को फौरी राहत और तुरंत सहारे के लिए मुआवजा दिया जाता है. एक घायल आर्मी ऑफिसर को वही मुआवजा अगर 40 साल बाद मिले, तो उस मुआवजे के कोई खास मायने नहीं रह जाते, ठीक उसी तरह जैसे देर से मिला न्याय, न्याय नहीं कहलाता. घायल आर्मी ऑफिसर, जो 1966 में चीन सीमा पर बारूदी सुरंग हटाते समय घायल हो गया था, जिसमें उनको अपना एक पैर और एक आंख गंवानी पड़ी थी, गंभीर रूप से घायल होने के बावजूद जो 12 सालों तक सेना को अपनी सेवा देते रहे, जिन्हें 40 साल पहले ड्यूटी से डिस्चार्ज कर दिया गया था, जिनको सेना पदक (वीरता) से पुरस्कृत किया गया था और उनकी इंजरी को ‘बैटल कैजुअल्टी’ घोषित किया गया था, उन्हें मुआवजा देने में 40 साल लगा दिए.
सेना से सेवामुक्त होने के बाद ऑफिसर को वॉर इंजरी पेंशन देने से मना कर दिया गया लेकिन उनको रक्षा मंत्रालय के लेखा विभाग की ओर से अपंगता पेंशन दिया गया. फिर उनको जुलाई 2013 से इंजरी पेंशन देने के लिए तैयार हुआ, लेकिन ऑफिसर चाहते थे कि उनको सितंबर 1978 से पेंशन दिया जाए जब वह सेवामुक्त हुए थे और उन्होंने आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल (एएफटी) का दरवाजा खटखटाया.
आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल ने रक्षा मंत्रालय को साल 1978 से 9 फीसदी ब्याज के साथ आफिसर को बकाया राशि का भुगतान करने का निर्देश दिया है. ट्रिब्यूनल ने वीरता पुरस्कार विजेता ऑफिसर को मुकदमे की अनावश्यक कार्रवाई हेतु मजबूर करने के लिए मंत्रालय पर 30,000 रुपये का जुर्माना भी लगाया है.
शारीरिक रूप से अपंग और आर्थिक रूप से तंगहाल ऑफिसर को 40 साल तक मुकदमे की अनावश्यक कार्रवाई से गुजरना पड़ा, तब कहीं जाकर मुआवजा मिलने की उम्मीद जगी है.
एक पैर और एक आंख गंवाकर भी एक पीड़ित ऑफिसर को मुकदमे की अनावश्यक कार्रवाई हेतु मुआवजे के लिए 40 साल तक भटकना कितना दुःखदायक है! उसके साथ यह भयंकर शारीरिक तथा मानसिक उत्पीड़न है.