क्या करे कोई !
अपने ही जब अपनों को छले तो क्या करे कोई!
शमां में जानकर परवाना जले तो क्या करे कोई!
वक्त़ तो बदल जाता है सबके लिए कभी न कभी;
इंतज़ार की लम्बी शाम न ढले तो क्या करे कोई!
महफिल में भी तन्हाई सी लगने लगी है अकसर;
हर जगह अब तुम्हारी कमी खले तो क्या करे कोई!
मन्नतों के धागे भी हो रहे न जाने क्यों अब बेअसर;
रेखाओं को हथेली पे रह रह मले तो क्या करे कोई!
“कामनी”जिन्दा रहना ही सिर्फ ज़िन्दगी तो नहीं मन;
दर्द को ही जीएं वो लगा के गले तो क्या करे कोई!
कामनी गुप्ता ***
जम्मू !