बागों बुलाती है सुबह
रात पर जय प्राप्त कर जब, जगमगाती है सुबह।
किस तरह हारा अँधेरा, कह सुनाती है सुबह।
त्याग बिस्तर नित्य तत्पर, एक नव ऊर्जा लिए
लुत्फ लेने भोर का, बागों बुलाती है सुबह।
कालिमा को काटकर, आह्वान करती सूर्य का
बाद बढ़कर कर्म-पथ पर, दिन बिताती है सुबह।
बन कभी बुलबुल, कभी कोयल, चमन में डोलती
लॉन हरियल पर विचरती, गुनगुनाती है सुबह।
फूल कलियाँ मुग्ध-मन, रहते सजग सत्कार को
क्यारियों फुलवारियों को, खूब भाती है सुबह।
इस मधुर बेला में क्यों ना, ‘कल्पना’ उठ चल पड़ें
मन उतारें रंग जो, हर दिन दिखाती है सुबह।
-कल्पना रामानी