मुक्तक दोहा
पीर पथराई पिघल कर गीत बनने को विकल है,
और नंगे घाव कहते हैं मुझे चादर ओढ़ाओ।
जिंदगी! आधी सदी चल कर यहां तक आ गया पर,
मार्ग कितना कंटकों का शेष है कुछ तो बताओ!
हमारे शब्द अनगढ़, अर्थ बौने, व्याकरण दूषित,
अगर कुछ शुद्ध पढ़ना हो तो मेरा मौन पढ़ लेना!!
— नीरज सचान
Bahut khoob jii