मधुगीति – आज आया लाँघता मैं !
आज आया लाँघता मैं,
ज़िन्दगी में कुछ दीवारें ;
खोलता मैं कुछ किबाड़ें,
झाँकता जग की कगारें !
मिले थे कितने नज़ारे,
पास कितने आए द्वारे;
डोलती नैया किनारे,
बैठ पाते कुछ ही प्यारे !
खोजते सब हैं सहारे,
रहे हैं जगती निहारे;
देख पर कब पा रहे हैं,
वे खड़े द्रष्टि पसारे !
क्षुब्ध क्यों हैं रुद्ध क्यों हैं,
व्यर्थ ही उद्विग्न क्यों हैं;
प्रणेता की प्रीति पावन,
परश क्यों ना पा रहे हैं !
जा रहे औ आ रहे हैं,
जन्म ले भरमा रहे हैं;
‘मधु’ घृत पी पा रहे हैं,
नयन उनके खो रहे हैं !
— गोपाल बघेल ‘मधु’