हवा का रुख
हर समय हंसती-मुस्कुराती हुई नताशा को देखकर कोई नहीं कह सकता कि इसके अंदर इतना तूफान समाया हुआ है. आज शाम को उसे मेरे रूप में एक अच्छा श्रोता मिल गया और उसका गुब्बार बाहर उमड़ आया, वह भी हंसते-मुस्कुराते हुए. यह मेरे लिए बहुत हैरानी की बात थी. कोई ऐसा प्रसंग भी नहीं उठा था, फिर भी वह बोली-
”आजकल के बच्चे न जाने क्या-क्या करते हैं? उन्हें अपना भला-बुरा भी समझ में नहीं आता. नेट से मेरे बेटे का संपर्क एक लड़की से हो गया. वह उससे शादी भी करना चाहती थी और मिलने में आनाकानी भी.”
”फिर मिली कि नहीं?” मेरी जिज्ञासा स्वाभाविक थी.
”नहीं जी, तीन साल के बाद आखिर बेटे को ही समझ आ गई, उसी ने ही जवाब देना छोड़ दिया.”
”अब बेटे की शादी हो गई या नहीं?” मेरा सवाल था.
”हां जी, हम तो हरियाणा के हैं, उसकी शादी एक बंगाली लड़की से हुई है. लड़की देखने-बोलने में अच्छी लगी. दोनों के परिवारों की रजामंदी से शादी हो गई.”
”बहू कैसी है?”
”ठीक है जी. जमाने की हवा ही ऐसी है. सास अपना मुहं बंद रखे तो भली है. फिर मुझे तो धन के लिए बेटे का मुख देखना पड़ता है. बात ऐसी नहीं है कि मेरे पति के पास पैसे नहीं है, पर मेरी जरूरतें पूरी करने में न जाने उनका हाथ तंग हो जाता है! इसलिए मैं कोशिश करती हूं, कि न बहू से कोई टोकाटाकी करूं, न उसको कुछ कहने-सुनने का मौका दूं.”
”हवा का रुख ही ऐसा है, सोच-समझकर चलने में ही भलाई है”. उसका निर्णायक वाक्य था.
हवा का रुख देखकर रिश्तों को समझने की नताशा की समझदारी हम सबके लिए एक उपयोगी सबक है. सच है-
”हम हवा का रुख तो नहीं बदल सकते,
लेकिन उसके अनुसार अपनी नौका के पाल की दिशा जरूर बदल सकते हैं”.