“उन्हें हम प्यार करते हैं”
हमारा ही नमक खाते, हमीं पर वार करते हैं
जहर मॆं बुझाकर खंजर, जिगर के पार करते हैं
शराफत ये हमारी है, कि हम बर्दाश्त करते हैं
नहीं वो समझते हैं ये, उन्हें हम प्यार करते हैं
हमारी आग में तपकर, कभी पिघलेंगे पत्थर भी
पहाड़ों के शहर में हम, चमन गुलज़ार करते हैं
कहीं हैं बर्फ के जंगल, कहीं ज्वालामुखी भी हैं
कभी रंज-ओ-अलम का हम, नहीं इज़हार करते हैं
अकीदा है, छिपा होगा कोई भगवान पत्थर में
इसी उम्मीद में हम, रोज ही बेगार करते हैं
नहीं है “रूप” से मतलब, नहीं है रंग की चिन्ता
तराशा है जिसे रब ने, उसे स्वीकार करते हैं
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(डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)