जब एक पेटी में बंद थी पूरी लाइब्रेरी
स्कूल के दिनों से बेहतरीन यादें किसी के जीवन में दूसरी भी हो सकती हैं इसकी कल्पना करना मुश्किल है! हम जब पांचवी में केंद्रीय विद्यालय में आये तब हमारे शहर में ये स्कूल एक जेल बिल्डिंग में लगता था, जेल बिल्डिंग में स्कूल होना आपको आश्चर्य में डाल देगा लेकिन अन्दर के तूफानी लड़कों को देखकर लगने लगा था कि इससे बेहतर जगह पूरे शहर में इनके लिए दूसरी है भी नहीं!
२००३ बड़ा यादगार साल था एक तो वर्ल्ड कप चल रहा था, क्रिकेट का भूत दिन रात सवार रहता था और दूसरा नए नए स्कूल में नए दोस्तों के अलावा नयी सी जगह को देखने समझने में ज्यादा दिमाग नहीं लगाना पड़ता था, जेल बिल्डिंग में लगभग २५ या ३० टॉयलेट्स थे! कुछ लोग ये भी बताते थे कि गाँधी जी भी कभी इसी जेल में आकर रहे हैं, जिस बात पर विश्वास करके थोडा अच्छा भी लगता था! अब ये तो पता नहीं कि बापू कभी हमारे पूर्व स्कूल में रहे हैं या नहीं, लेकिन इतना पता था ये स्कूल रोमांचक जगह थी…. बेहद! कभी गेट के पास सांप बिच्छु के दर्शन आम थे! बरसात के समय में मेंढकों की आवाजाही बनी रहती थी, फिर भी बहुत हद तक स्कूल प्रशासन साफ़ सफाई का बहुत ख्याल रखता था! खेलने कूदने की भी पर्याप्त सामग्री थी, म्यूजिक रूम में हारमोनियम, तबला, ढोलक सब उपलब्ध हो जाते थे, कुछ ही दिनों में हमारा मन स्कूल में लगने लगा था! कंप्यूटर रूम में बैठकर गप्पे हांकना या कंप्यूटर में पेंटिंग करना, ये सब तब बड़ा रोमांचक था!
फिर कुछ दिनों बाद लाइब्रेरी की क्लास लगने लगीं…. जहाँ अन्दर की तरफ लाइब्रेरी थी, वो जगह जैसे एक तहखाने की तरह हमेशा बंद रहती थी, वहां अक्सर दिन में उल्लुओं के दर्शन सहज ही प्राप्त हो जाया करते थे, उस जगह के बारे में कई तरह की बातें हमारे बीच प्रचलित थीं, कोई कहता था वहां कैदियों को फांसी दी जाती थी, कोई कहता था वहां से रोने की आवाजें आती
थीं, खैर जब उस लाइब्रेरी के आसपास सब हुडदंग करने लगे तब पुस्तकों को पढने के लिए एक बड़ी सी पेटी में बाहर लाया जाने लगा… लगभग ६० ७० लोगों कि क्लास के बीच दो पेटियों में पुस्तकें भरकर लायी जाने लगीं!
उन पुस्तकों में अधिकतर लोग ‘नन्हे सम्राट’, चम्पक, बालहंस जैसी मैगजीन्स उठाकर पढ़ते थे, जब ये सब पुस्तकें खत्म हो जाती थीं तब हमारे जैसे क्रिकेट प्रेमी ‘क्रिकेट सम्राट’ जैसी पुस्तकें पढने लगे, हम हर मैच के स्कोरबोर्ड देखा करते थे, किसने कितने रन बनाये, किसने कितने विक्केट लिए ये सब एक मैगज़ीन में देखने मिलता था, फिर जब पेटियों से ये पुस्तकें भी खाली होने लगीं तो हमारे लिए प्रतियोगिता दर्पण जैसी पुस्तकें बचने लगीं, जिनमे भी हम क्रिकेट के रिकॉर्ड वाले प्रश्न ही हल करते थे!
उनदिनों एक ही पेटी में बंद ढेर सारी पुस्तकों के लिए हम टूट पड़ते थे, उन मैगजीन्स की खुशबू आज भी मेरे जहन के किसी कोने में है! कुछ दिनों पहले जब एक लाइब्रेरी गया तो एहसास हुआ कि कभी पेटियों में पुस्तकें पढने के लिए टूट पड़ने वाले हाथ अब इन खुली पड़ी लाइब्रेरीज की खाक भी नहीं छानती! इन गैजेट्स ने हमे शायद सुविधा बहुत दी लेकिन किताबों, पुस्तकों,
पत्रिकाओं से बहुत दूर कर दिया! क्या इन एहसासों को हमारी आने वाली पीढ़ी कभी साझा भी कर पाएगी?