सामाजिक

लेख– देश की अर्थव्यवस्था को बट्टा लगाते, बढ़ते आंदोलन

एक लोकतांत्रिक देश की अर्थव्यवस्था किसके पैसों पर चलती है। यह बताने की बात नहीं। आम अवाम टैक्स अदा करती है, फ़िर उसी पैसों से देश चलता है। ऐसे में जब अवाम के पैसों से ही देश की गाड़ी गतिमान होती है। फ़िर एक बात यह समझ नहीं आती, कि हिंसा और विरोध प्रदर्शन के नाम पर अवाम क्यों ख़ुद के पैसों को फूंककर तमाशा देखने का कार्य करती है। किसी भी देश की प्रगति में रुकावट का काम हिंसा और विरोध प्रदर्शन करती है। हिंसा से मानवीय और आर्थिक छति दोनों लोकतांत्रिक व्यवस्था में समाज की ही होती है। अगर हम किसी बात को लेकर सरकार के खिलाफ झंडा बुलंद कर देते हैं, हिंसा पर उतारू हो जाते हैं। सरकारी सम्पतियों को नुकसान पहुँचाते हैं। तो ऐसे में अगर हिंसा में मानवीय छति हुई तो वह भी समाज की होगी, और सरकारी संपत्ति के नुकसान की भरपाई भी सरकार टैक्स बढाकर और ज़रूरी वस्तुओं के दाम बढ़ाकर हमसे ही वसूल करती है। ऐसे में समाज का हिंसा और विरोध का यह मनोविज्ञान समझ नहीं आता, कि वह विरोध के नाम पर सरकारी संपत्ति को हानि पहुँचाकर आख़िर अपना क्या भला कर लेती है।

आज हमारा देश विकासशील देश की पटरी पर दौड़ रहा है। ऐसे में आएं दिन की हिंसा उसे आगे बढ़ने में रोक रहें हैं। यहां मेरे कथन का यह मतलब भी नहीं कि अपनी बात और मांग भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में न रखी जाए। अपनी बात रखने का एक साधारण तरीका भी हो सकता है। वैसे भी हम उस देश के वासी हैं, जहां पर अहिंसा के पुजारी गांधी जी का जन्म हुआ है। हम विरोध और अपनी बात मनवाने के लिए उनके व्यक्तित्व से कुछ सीख क्यों नहीं लेते। उनका सपना था, कि हमारा देश अहिंसा की राह पर चलें, पर दुर्भाग्य देखिए उनकी बातों पर आज़तक अमल नहीं हो पाया। इंस्टीट्यूट फ़ॉर इकोनॉमिक्स एंड पीस 2017 की रिपोर्ट के मुताबिक देश को हिंसात्मक विरोध के कारण 80 लाख करोड़ रुपए की छति उठानी पड़ रहीं है। अगर इसे प्रतिव्यक्ति में बदल दें, तो लगभग प्रतिव्यक्ति के हिस्से में 40 हज़ार रुपए आएगा। इसके अलावा इसे सकल घरेलू उत्पाद के संदर्भ में देखें तो देश को जीडीपी के नौ फीसदी के बराबर नुकसान झेलना पड़ा। यह हुई आर्थिक हानि। इसके अलावा हिंसा में कई घर जलकर राख हो जाते हैं। ऐसे में मेरे मुताबिक विरोध का हिंसात्मक रूप सभ्य समाज के लिए कतई उचित और न्यायसंगत नहीं हो सकता। अब अगर हम एक मामूली बात पर गौर करें, तो यह है, कि अगर 80 लाख करोड़ रुपए देश के विकास में लग जाते तो देश की कुछ हद तक तस्वीर बदल जाती। इन 80 लाख करोड़ रुपए से अगर नीति और नियत होती तो भूखे को निवाला, ग़रीब के सिर पर छत की छाया और बीमारी के लिए दवा उपलब्ध हो सकती थी। पर हम इतना क्यों सोचें, हमें तो सिर्फ़ अपना घर भरना दिख रहा। हमें आरक्षण के नाम पर उन्माद मचाना है, किसी ढोंगी बाबा को बचाने के लिए सरकारी संपत्ति को स्वाहा करना है। ऐसी सोच जब तक देश की नहीं बदलेगी। देश की तक़दीर और तस्वीर नहीं बदल सकती।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896