कविता – कुछ ढूढ़ रहा है मेरा मन !
कुछ ढूढ़ रहा है मेरा मन !
क्यों परेशान लगता है जन !!
स्वार्थ की गाड़ी पर सब चढ़ ,
भटक रहे पनघट -पनघट ,
दूर दिखाई देता पानी पर ,
लेता देता हर पल ही छल.,
हाथ नहीं लगता जब सुख ,
हो जाता है -फिर बिह्वल मन ,
कुछ ढूढ़ रहा है मेरा मन !
क्यों परेशान लगता है जन !!
अंधे को उजियारा चाहे ,
बिह्वल मन अंधियारा भाये ,
भूखे को रोटी है प्यारी ,
लालची कहता सम्पति सारी,
कोढ़ी को काया है भाये ,
मोटा सोचे दुबला हो जाए ,
निर्धन मांगे बस धन ही धन ,
कुछ ढूढ़ रहा है मेरा मन !
क्यों परेशान लगता है जन !!
आसमान में कितने तारे ,
गिनते -गिनते सब है हारे ,
मन चंचल कंही थम न पाए ,
एक पकडे एक छुटा जाए ,
दूजे की थाली में घी है ,
ये सोचे बस मन ललचाये ,
भटक रही है युगों -युगों से ,
माया मन को ले ले कर ,
कुछ ढूढ़ रहा है मेरा मन !
क्यों परेशान लगता है जन !!
— हृदय जौनपुरी