“बंद दरवाजा”
“बंद दरवाजा”
ये कहानी नही है ! और न ही रामसे ब्रदर्स की किसी फ़ीचर फ़िल्म का एक टाइटल ।
“बंद दरवाजा” एक मनन है मेरे अंत:करण का ।
यूँ तो बीएचईएल झांसी की छोटी सी टाउनशिप में प्रवेश करने हेतु कई दरवाजे हैं। जंहा से हम जब चाहे गुजर सकते हैं किन्तु अभियंता प्रशिक्षु छात्रावास के समीप बना हुआ दरवाजा हमेशा बन्द रहा करता है ।
बात तकरीबन तीन साल पुरानी है । मैं झांसी बीएचईएल में नया था ।
शाम को टहलते वक़्त जब भी अभियंता प्रशिक्षु छात्रावास वाली सड़क से होकर गुजरता था,
हर बार मेरी नज़र दूर बने उस दरवाजे पर जाकर ठहर जाती थी ।
लोहे की सलाखों को धागेनुमा फसां कर बनाया हुआ यह दरवाज़ा देखने पर बहुत ही सामान्य सा नजर आता था । किन्तु हर वक्त इस पर ताले का जड़ा रहना मेरे मन मे कई प्रश्न खड़े कर जाता था। हर दफ़ा मैं ये सोंच कर आगे बढ़ जाता था कि यदि आगे जंगल है तो इस दरवाजे की आवश्यकता क्यों है, और अगर इसकी जरूरत है तो यह हमेशा बन्द क्यों रहता है ।
वक्त गुजरता गया ।
फिर एक दिन मेरे एक संघी के वृद्ध पिता का आकस्मिक निधन हो गया । अंतिम संस्कार हेतु उठावनी में मैं भी अर्थी के पीछे पीछे चल रहा था । जिज्ञासावश किसी से पूछ बैठा कि यहां अंतिम संस्कार कहाँ पर किया जाता है ?
मुझे जवाब मिला “यहीं आगे प्रशिक्षु छात्रावास के पास से रास्ता गया है”।
मेरे लिए ये समझना कठिन नही था कि आख़िर हमें पहुचना कहाँ है । मैं आगे बढ़ता गया । और उसी दरवाजे के बहुत पास जाकर ठहर गया ।
हाँ वही दरवाजा !
जो हमेशा बंद रहता था किन्तु आज उसे खोला जा रहा था ।
मेरे अंतर्मन में उठ रहे कई सवालों का जवाब मुझे मिल चुका था । यह दरवाजा शमशान घाट जाने के लिए खुलता था ।
हम सब समशान घाट पहुँच चुके थे।
अंतिम संस्कार की सारी क्रियाएं पूर्ण हो चुकी थी और देखते ही देखते मिट्टी बुलाये जाने वाले उस मृत शरीर को आग लगा दी गयी थी ।
बहुत सारे लोग अपने अपने घरों की ओर लौटने लगे , अधिक निकटता और अपने स्वभाव वश मैं बहुत देर तक वहाँ ठहरा रहा ।
तभी देखा कि गांव के रास्ते एक और शव को शमशान घाट लाया गया है एक बार फिर वही सब कुछ ।
मैं जिंदगी की उहापोह से कहीं दूर न जाने कौन से विचारों में खो गया था ।
और स्तब्ध सा ! जीवन और मृत्यु के प्रतिबिम्बों के बीच ख़ुद को ढ़ूढ़ रहा था ।
सभी लोग वापस घर आ चुके थे ।
अगले दिन फिर से प्रशिक्षु छात्रावास के निकट से गुजरा !
दरवाजा आज फिर से बन्द था । लेकिन अब मेरे अंतर्मन में कोई प्रश्न नही है । क्यो कि उस दरवाजे पर सिर्फ ताला जड़ा था ।
वो “बंद दरवाजा” नही था।
वो खुला था हम सब के लिए !!!
!!! जलकर तकरीबन राख में तब्दील हो चुकी दोनों लाशें,
एक दूसरे का अकेलापन दूर कर रहीं थीं और इस दुनिया के दर्द और झमेलों से कहीं दूर शुकून के प्रभामंडल में मुस्कुराती हुई शायद मुझे भी अपने पास बुला रही थीं । मैं जरूर आऊंगा कहते हुवे आगे बढ़ चुका था ।।।
दरवाजा आज भी बंद है ।!
नीरज सचान, सहायक अभियंता बीएचईएल झांसी ।