कविता – विवशता
वो जो किनारे पर बंधी है वो नैया मैं ही तो हूँ।
हुनर मेरा तैरना,नाम होता माझी का,वो मैं ही तो हूँ।।
डूब जाती समंदर मैं खुद ही कागज की है नैया।
लगे इल्जाम समंदर पर,बस इल्जाम वाला समंदर मैं ही तो हूँ।।
वो जो बच्चो को पढ़ा लिखा कर बडा करता है,वो पिता।
जिसने फिर भी अपने बच्चों सुनना है क्या किया है,मैं वही तो हूँ।।
जिंदगी भर जो पौधों को रखता रहा हराभरा वो जड़े।
बस आ जाये पतझड़ लगे इल्जाम जिस जड़ पर,मैं वही तो हूँ।।
बना ऊँची ऊँची इमारते खड़ा है जो ठगा सा मजदूर।
बस वही ठगा हुआ सा मजदूर मैं ही तो हूँ।।
हर एक तरीके का जत्न जिसने किया जीने का।
हाँ जिसे लुटा खुद जीवन ने बस मैं वही इंसान तो हूँ।।
— नीरज त्यागी