कामचोर मिनी
कामचोर मिनी
सुबह से ही घरभर में मिनी का नाम गूँजने लगता है।
“मिनी ज़रा गैस बंद कर देना” “ मिनी मेरे मोजे कहाँ रख दिए” “मिनी तुलसी के पत्ते तोड़ ला” “मिनी बाइक पोंछने के लिए गंदा कपड़ा देना” “मिनी ये” “मिनी वो”।
वैसे तो मिनी 14-15 साल की थी, मगर अपनी उम्र 18 बताती थी क्योंकि इस देश में अठारह साल से कम उम्र का व्यक्ति अपना या परिवार का पेट नहीं पाल सकता था। इसके अलावा मिनी हरगिज नहीं चाहती थी कि जगनमोहन जी के परिवार वालों को जेल हो क्योंकि वे उसके अन्नदाता थे।
राहुल भैय्या कॉलेज के लिए निकल चुके थे। तो एक आदमी अब आवाज़ नहीं देगा। मगर राजेश भैया को तो दफ्तर के लिए देर हो रही थी और उनका मोजा नहीं मिल रहा था।
मिले भी कैसे? सामने बिस्तर पर रखा मोजा। मिनी ने पहले ही अलमारी से निकाल कर समाने बिस्तर पर रख दिया था। उसे पता था कि उन्हें ज़रूरत पड़ने वाली है और वो कहीं एक जोड़ी मोजे के लिए पूरी अलमारी न उधेड़ कर रख दें इसलिए मिनी ने पहले ही…मगर…
उधर सीमा भाभी जल्दी-जल्दी चावल चढ़ाकर बाथरूम चली गई हैं और वहीं से ही मिनी को गैस बंद करने को कह रही हैं। साथ ही जगनमोहन जी की पत्नी, वीणा जी पूजा पर बैठी हैं और तुलसी के पत्ते उन्हें अभी के अभी चाहिए।
मिनी करे तो क्या करे?
उसका दिन ऐसे ही शुरू होता है और ऐसे ही खत्म हो जाता है। गैस बंदकर तुलसी के पत्ते लेने बाहर चली गई तो इस बीच जगनमोहन जी को घुटने में मालिश कराने की तीव्र इच्छा हुई। सो अब उन्होंने भी मिनी नाम का जाप करना शुरू कर दिया।
तुलसी के पत्ते लेकर अंदर आई तो याद आया की भैया को मोजे देना भूल गई। मगर ठीक है, अब तो वे तैयार हो कर जाते हुए दिखाई दे रहे थे।
अभी वह तुलसी के पत्ते देकर जगनमोहन जी के कमरे की ओर बढ़ ही रही थी कि उनके कमरे के ठीक बाहर बने बाथरूम से भाभी निकली और निकलते ही मिनी का रास्ता छेंककर बोलीं।
“मिनी, ज़रा अपने भैया का टिफिन लगाने में मेरी मदद कर दे।“
“मैं क्या करूँ भाभी? मामाजी कब से घुटने की मालिश के लिए आवाज दे रहे हैं।“
“अच्छा…”
मिनी की मजबूरी समझते हुए सीमा ने उसे छोड़ दिया।
“ठीक है तो फिर मैं खुदी कर लेती हूँ।“
सीमा जहाँ राजेश के लिए टिफिन लगाने लगी वहीं मिन्नी ने गैस स्टोव पर गर्म पानी चढ़ा दिया। जब तक पानी गर्म हो रहा था उसने जगनमोहन जी के पास टब, तौलिया और बाम वगैरह लाकर रख दिया।
टब में ठंडा-गर्म पानी मिलाकर मिनी जगनमोहन जी की कुर्सी के पास ही स्टूल लेकर बैठ गई। बड़े आराम से उसने जगनमोहन जी का बायां पाँव उठाकर पानी में डाला। उन्होंने “आहा हा” कहते हुए लंबी सिसकारी ली जैसे किसी नैसर्गिक सुख की प्राप्ति हुई हो।
दूसरा पाँव भी टब में डालकर वह उसे मलने लगी। जगनमोहन ने एक नज़र पैरों पर झुकी मिनी पर डाली और मिनी से पूछा।
“क्या राजेश ऑफिस चला गया?”
एड़ियां रगड़ती हुई मिनी बोली।
“जी मामा जी”
“और राहुल?”
“वे भी कॉलेज गए।“
“तेरी मामी क्या कर रही है?”
“पूजा में बैठी हैं, और क्या?”
“बहू? बहू कहाँ है?”
“किचेन में”
मिनी अब तक पिण्डलियां रगड़ने लगी थी कि जगनमोहन जी ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा।
“जुग-जुग जियो बेटा, ऐसे ही सेवा करो तो अच्छा घर-वर मिलेगा।“
पीछे से गुज़र रही सीमा ने यह देखा और देखकर मुस्कुरा दी। वह बाथरूम में ही धुले हुए गीले कपड़े छोड़कर राजेश को ऑफिस भेजने में लगी थी। अब बाथरूम में लौटकर अपने कपड़े लेने आई थी ताकि बाहर सूखने के लिए डाल सके। कपड़े लेकर वह बाथरूम से निकली तो फिर जगनमोहन जी के कमरे पर एक नज़र डालती हुई निकली।
जगनमोहन जी और मिनी, दोनों की पीठ सीमा की ओर थी। सीमा ने देखा तो झटका खा गई।
जगनमोहन जी का हाथ मिनी के सिर से खसककर उसकी पीठ पर आ गया था और पीठ के खुले भाग से उन्होंने हाथ कमीज़ के अंदर डालते हुए मिनी से पूछा।
“तुम्हें किसी चीज़ की कमी तो नहीं। कुछ ज़रूरत हो तो बताना, मैं पूरा कर दूँगा।“
मिनी ने तुरंत पीठ सिकोड़ ली जैसे पीठ सिकोड़ने से जगनमोहन जी का हाथ पानी की तरह फिसल जाएगा। साफ़ पता चल रहा था कि मिनी को यह सब अच्छा नहीं लग रहा था।
मिनी अब भी पैरों को मलते हुए यही सोच रही थी कि क्या करे और क्या न करे? वहीं पीछे खड़ी सीमा अनायास ही मुँह पर हाथ रखकर अपने आश्चर्य को अपने अंदर दबाने की कोशिश कर रही थी। मगर वह कितना कोशिश करती, आगे का नज़ारा देख तो उसे भागकर ड्राइंग रूम में आना पड़ा ताकि वह अपनी रोकी हुई साँस बाहर छोड़ सके।
दरअसल हुआ यह कि घुटनों पर बाम लगाने के लिए जगनमोहन ने लुंगी ऊपर उठाई तो उठाते चले गए। कुछ पलों के लिए मिनी के आगे अँधेरा छा गया। मगर तब तक आँखों में अपमान की पीड़ा भी घिर आई थी जो आँसूं बनकर टप-टप बहने लगी। और लगभग-लगभग सीमा के ही पीछे-पीछे वह भी ड्राइंग रूम में आ गई थी और दरवाज़े की तरफ बढ़ रही थी कि इतने में बाईं ओर के कमरे से जगनमोहन जी की पत्नी अपनी पूजा खत्म कर निकली।
मिनी को यूँ तेज़ी से घर से बाहर जाते हुए वे भी चौंककर बोली –“अरे मिनी! कहाँ जा रही है बेटा?”
सकपकाई, हड़बडाई सी मिनी बस हवा में एक उत्तर छोड़ते हुए घर से बाहर निकल गई।
“पेट में बहुत तेज़ दर्द….ऐंठन उठी है। घर जा रही हूँ।“
उसने बोलते समय वीणा जी की ओर देखना ज़रूरी नहीं समझा कि कहीं आँसूँ न दिख जाएं।
“ज़रूर पेट साफ़ नहीं होगा। कितनी बार लड़की को समझाया, सुबह ही नींबू डालकर गरम पानी के साथ पिया करे। बदहज़मी अच्छी नहीं होती। मगर सुनता कौन है?”
वहीं खड़ी सीमा हाथ में गीले कपड़े लिए अंदर तक हिली हुई थी, यह सारा तमाशा देख।
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मिनी की माँ ने बहुत कोशिश की कि खुद काम पर जाने से पहले उसे उठाकर काम पर भेज सके। मगर वह पेट पकड़कर लेटी रही। मगर जब उसे देर होने लगी तो वह जाते-जाते मिनी को हिदायत देती हुए गई।
“देख मिनी, अच्छा काम रोज़-रोज़ नहीं मिलता। एक बार छूट गया तो फिर नहीं मिलेगा। थोड़े-मोड़े दर्द-बुखार के लिए हाथ में लिए हुए काम से पीछे नहीं हटना चाहिए नहीं तो काम पीछे हट जाएगा। तू नहीं करेगी तो कोई और करेगा और हम भूखों मरेंगे। रोज़ काम पर जाती है तो कुछ न कुछ वहीं खाने को मिल जाता है। आज नहीं जाएगी तो इस झोपड़ी में ऐसा क्या है जो खाएगी। ऐसे काम से जी चुराने से बात नहीं बनेगी। देख बब्बन के इलाज में कितना पैसा खर्च हो रहा है।“
इतना कहकर जब उसकी माँ हार गई तो छ: महीने के बब्बन को नौ साल की माया के गोद में डालकर चली गई। मगर इतना सब सुनने के बाद भी मिनी की इतनी हिम्मत नहीं हुई कि माँ को सच बता सके। बस देर तक टुकुर-टुकुर अपनी अस्थाई झोपड़ी को देखती रही, जो कभी भी मुनिसिपल्टी के बुलडोजर की भेंट चढ़ सकता था।
वह चटाई से उठी और एक गिलास पानी पीकर फिर लेट गई। उसका गुस्सा फूट-फूटकर बाहर आने लगा और वह चीख-चीखकर रोने लगी। वहीं कपड़े के झूले में डाले बब्बन को झुलाती हुई माया डर गई और मिनी से पूछने लगी।
“क्या हुआ दीदी? बहुत ज़्यादा दर्द है क्या? डॉक्टर के पास चलें क्या?”
मिनी को बुरा लगा कि खामखा माया को डरा दिया। फिर अपने आँसूँ पोंछ कुछ देर अपने गुस्से को दबाती रही। मगर जब ज़्यादा देर नहीं दबा पाई तो उठ खड़ी हुई और चल दी। मिनी को जाते हुए देख माया ने पूछा।
“कहाँ जा रही है दीदी?”
“जरा वैद जी के यहाँ से खुराक़ लेकर आती हूँ।“
मगर मिनी जिस ओर जा रही थी उस ओर किसी वैद का रास्ता नहीं जाता था। उसी रास्ते पर गुस्से से फुँफकारती मिनी आगे बढ़ रही थी कि रास्ते में चूड़ी-बिंदियों की एक दुकान आई। मिनी की तेज़ चाल अचानक धीमी हो गई क्योंकि उसे वो दिन याद आ गया जब उसे किसी की शादी में जाना था और उसके पास कपडों के साथ पहनने के लिए गहने या चुडियाँ-बिंदी-मेंहदी आदि नहीं थे। तब उस शादी में जाने के लिए सारी खरीदारी सीमा भाभी ने बड़े मन से कराई थी। यहाँ तक कि अपने गहने भी उधार दे दिए थे। इतना भरोसा था उन्हें।
उसके काम पर नहीं जाने से सारा बोझ तो सीमा भाभी पर ही आया होगा। जब तक कि उन्हें कोई और कामवाली नहीं मिल जाती।
मगर कुछ ही पल में मिनी की पीड़ा ने फिर ज़ोर मारा और वह फिर तेज़ी से आगे बढ़ गई।
वह अपनी धुन में फुँफकारती हुई आगे बढ़ रही थी कि रास्ते में फिर कुछ हुआ। उसकी नज़र एक पुलिया के किनारे उन लड़कों पर पड़ी जो कभी उसे देख छेड़ते थे मगर जिस दिन से राहुल भैय्या ने एक की कनपटी के नीचे झापड़ रसीदा है वे सब के सब उसे देखकर भाग खड़े होते हैं।
उस दिन भी उसे जब जगनमोहन जी के यहाँ काम करते हुए देर हो गई थी तो राहुल भैय्या उसे घरतक छोड़ने आए थे। वह आगे-आगे चल रही थी और भैय्या पीछे-पीछे। लडकों को अंदाज़ा भी नहीं था कि वे दोनों साथ हैं। अपनी पुरानी आदत के अनुसार छिछोरी टिप्पणियां करने से बाज़ नहीं आए। बस फिर क्या था, राहुल भैय्या के कानों में जो ऐसी गंदी बात आई तो अंधेरे से निकलकर वे नियोन लाइट के पोल के नीचे खड़े उन लड़कों के पास हो लिए। लड़के थे डरपोक, राहुल भैय्या की तगड़ी बिल्ट के सामने भाग खड़े हुए। फिर भी एक का कॉलर भैय्या के हाथ लग ही गया।
मिनी के कदम अब धीमे हो चले थे। क्या करें, क्या न करें? वह धीमी चाल से ही सही आगे बढ़ती रही। फिर रास्ते में वह अस्पताल आया जहाँ पिछली बार बब्बन को निमोनिया हो जाने पर इलाज कराया था। सब जगह से निराश हो गए थे। यहाँ तक कि दूसरे शहर में काम कर रहे पिताजी भी कुछ पैसा भेज पाने में असमर्थ थे। तब राजेश भैय्या ने इलाज के पैसे दिए थे। वह भी औरों की तरह सूद या उधारी पर नहीं। बस योंही, कभी न लौटाने के लिए।
अब तो मिनी के कदम किसी जिंदा लाश की तरह घिसटने से लगे। फिर भी ऐसे-जैसे-तैसे करके वह पुलिस थाने के सामने पहुँच गई। उसके कदमों ने काँपना शुरु कर दिया और आगे बढ़ने से इंकार कर दिया। उसे ज़ोरदार पसीना आने लगा। पसीना पोंछने के लिए उसने ओढ़नी माथे से लगाई तो उसे और भी कुछ याद आ गया।
मामी जी हर साल चैत्र के महीने में व्रत रखती हैं और कन्या खिलाती हैं। कन्याओं के बीच उसे भी बड़े आदर-सम्मान से देवी माँ बनाकर बिठाती और पाँव पूजती हैं। उसे खुद को कितना बुरा लगता है जब उसकी मालकिन उसके पैर छूकर उसे टीका लगाती हैं, वही मालकिन जिनके यहाँ काम करने से उसका पेट भरता है। भला कौन अपनी कामवाली को इतनी इज़्ज़त देगा। कन्या बनाने के बहाने जाने कितने नए कपडों और शृंगार के समान से झोली पटा देती थीं। यह चुनरी भी तो उसी पूजा में दी थी।
अब तो मिनी बुरी तरह टूट चुकी थी। वह उल्टे पाँव घर लौट आई।
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उधर मिनी ने काम पर आना छोड़ दिया तो सब कारण सोचने लगे। खाने की मेज पर जगनमोहन जी ने उद्घोषणा सी की।
“कामचोर थी। काम छोड़-छोड़कर भाग जाती थी।“
राजेश को पहले तो यकीन नहीं हुआ मगर वह सोचने बैठा तो एक-एक निवाले के साथ एक-एक कर कई वाकये याद आए।
“शायद सही कह रहे हैं बाउजी। पहले ऐसी नहीं थी वो। मन लगाकर काम करती थी। पिछले कुछ दिनों से मैं भी देख रहा हूँ कि मेरी कोई चीज़ लाकर ही नहीं देती। सीमा को भी देख रहा हूँ अकेले ही टिफिन बनाती-देती-करती है जबकि पहले मिनी अकेले ही यह सारा काम सँभाल लेती थी। खैर! लड़कपन है। कोई जिम्मेदार कामवाली ढूँढनी ही होगी।“
वीणा जी भी विस्मित थीं।
“उसके लिए क्या कुछ नहीं किया हमने। छोटे बच्चे को भी एहसास हो जाता है कि कौन अपना है, कौन पराया है और अपनों को ऐसे मँझधार में छोड़कर नहीं जाना चाहिए। और यह तो अच्छी खासी घोड़ी हो चली थी। मगर क्या करें? अब नई कहाँ से लाएं?”
राहुल का भी इस समस्या पर कुछ बोलना ज़रूरी था तो जो उपाय उसे सूझा उसने सामने रख दिया।
“नहीं। काम तो अच्छा करती थी। नई रखेंगे तो पता नहीं कैसा करेगी? उसे क्या तकलीफ़ है, क्या पता? क्यों न उसके घर जाकर उससे बात कर आऊँ? मैंने उसका घर देखा है।“
जगनमोहन जी झल्लाए।
“अरे कोई तकलीफ-वकलीफ नहीं थी। एक नंबर की कामचोर थी। कोई काम बोलो तो पेट में दर्द नहीं तो इधर-उधर घर के किसी कोने में गायब हो जाती थी। और तू लल्ला, उस गंदी बस्ती में जाएगा उस कामवाली के लिए तो सोच कितनी बदनामी होगी।“
सब चुप हो गए। सीमा तो कब से अपने होंठ चबा रही थी। सबकुछ जानते-बूझते हुए भी कुछ बताने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी। छाछठ साल के बूढ़े आदमी की छिछोरी हरकत उसके ही जवान बेटों के सामने वह कैसे बयां करे। उसका यकीन भी कौन करेगा भला। कहीं मिनी का पक्ष लेने के चक्कर में सब उससे ही घृणा न करने लगे। और फिर जब बात आई-गई हो ही गई है तो मुँह खोलकर अपने ही परिवार की बदनामी क्यों करना?
सीमा चुप रही।
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वीणा जी आज टहलने के इरादे से और साथ में ताजी सब्जियां लाने के इरादे से सब्जी मार्केट की ओर निकल गईं। वहीं उन्होंने मिनी को देखा।
“अरे मिनी! इधर तो आ।“
मिनी सकुचाते हुए वीणा जी के पास चली आई। बहुत हीले-हवाले देने पर आखिर मिनी ने असली बात वीणा जी को बता ही दी।
“मामी! मैं तो पुलिस स्टेशन तक पहुँच गई थी। मगर अपका, भैय्या-भाभी का मुँह याद करके रहने दिया।“
वीणा जी को जबरदस्त झटका लगा। इस उमर में घर की बदनामी कानों में गूँजने लगी। सीमा ने भी कई बार इशारों में बताने की कोशिश की थी मगर वीणा जी की अब इशारे समझने की उम्र कहाँ रही।
“अरे नहीं बेटा। ऐसा कभी न करना। जिस घर का नमक खाया है उसी की इज़्ज़त मिट्टी में मिला देगी क्या?”
“नहीं मामी। मैं ऐसा कुछ भी नहीं करूँगी। अच्छा चलती हूँ। माँ इंतजार कर रही होगी।“
स्तब्ध सी वीणा जी जब कॉलोनी में वापस लौटी तो मिसेज माथुर टकरा गईं। उन्हें खाली समझ काफी देर गप्पे हाँकती रही और फिर वीणा जी से सवाल किया।
“आपके यहाँ एक छोटी लड़की काम करने आती थी। अब दिखाई नहीं देती। क्या काम से निकाल दिया?”
सवाल सुनकर कुछ देर तो वीणा जी बगलें झाँकती रही। फिर ‘हाँ’ की मुद्रा में सिर हिलाया।
“वह भला क्यों?”
इस सवाल ने वीणा जी को बड़े धर्मसंकट में डाल दिया। अब भला क्या बताएं कि क्यों? अपने घर पर कीचड़ उछाल नहीं सकती। बिना वजह किसी को काम से कभी निकाला नहीं जा सकता। मिनी पर दोष मढ़ सकती हैं। कह सकती हैं कि किसी के साथ उसका चक्कर था या वह अपने घर से भाग गए। मगर इतना बड़ा लांछन लगाने का भी जिगर नहीं था उनका। अंतत: थूक घोंटते हुए बोली।
“कामचोर थी।“
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मार्मिक कहानी !
शुक्रिया