थूकना-चाटना : थूककर चाटना
थूकना और चाटना- दोनों क्रियाएँ अशोभनीय मानी जाती हैं और थूककर चाटना-अतिअशोभनीय। हमारा देश थूकने के मामले में स्वावलंबी है। थूक के रिकाॅर्ड उत्पादक! यदि थूक से कोई उत्पादन होता तो हम उत्कृष्ट दर्ज़े के उत्पादों के निर्यातक होते। मेरा तो सरकार को सुझाव है कि थूकनेवालों को सम्मानित करना और ईनाम देना शुरू कीजिए थोड़ ही दिनों में हम अंतर्राष्ट्रीय स्तर के ‘थूकबाज’ पैदा कर लेंगे। हमारे देश को विदेशों से थूकने का प्रशिक्षण प्रदान करने के दक्ष थूकबाज़ों को आमंत्रित किया जाने लगेगा। हमारी प्रतिभाओं का विदेश में सम्मान होगा। देश में विदेशी पूँजी आएगी। आम के आम गुठलियों के दाम।
थूकने का हुनर जन्मजात नहीं होता। इसे अर्जित किया जाता है। बाप-दादा, दोस्त-भाई? गुरू-शिक्षक, कोई भी प्रेरणा का स्त्रोत हो सकता है। हमारे देश में इस पुरातन विद्या को सीखने की न कोई उम्र है और न कोई शाला। बस आपकी नज़रें पारखी होनी चाहिए। गुरू आपको आसपास मिल जाएँगे। वैसे इस कला को
सीखने के लिए उपनयन संस्कार लगभग आठ वर्ष की आयु में हो जाता है। भारतीय बालक के थूकने का प्रथम चरण तब आरंभ होता है, जब वह बाज़ार से मीठी सुपारी जैसी क्षुद्र वस्तु का भोग लगाना आरंभ करता है। समय के साथ तंबाकू, गुटका, खर्रा, पान जैसे ‘शाही-शौकों’ अपनाता हुआ वह इस कला में पारंगत हो जाता है। वर्तमान-युग में जो इन थूकनेवाले शौकों से दूर रहता है, उसे सभ्य समाज में सम्मानित दृष्टि से नहीं देखता। शरीफ़, कंजूस, लल्लू, आदि उपाधियों से उसे अलंकृत किया जाता है। कभी-कभी तो उस बेचारे में इतनी हीनभावना समा जाती है कि वह सोचता है-‘छी!! वह कितना निकृष्ट दर्ज़े का जीवन यापन कर रहा है। उसे इस संसार में जीने का कोई अधिकार नहीं।’
आत्भमहीनता की यह भावना उसे समाज में सिर उठाकर चलने नहीं देती। वह उपहास और मनोरंजन का केन्द्र बन जाता है।
कुछ लोग बिना इस प्रकार की चीज़ खाए ही थूकते रहते हैं। की बार उन्हें इस बात का आभास होता है कि उन्सोंने जो थूका है; वह बहुत कीमती क्वालिटी का था। उसे अपनी इस बहुमूल्य थूक का इस तरह अपमान करने का कोई अधिकार नहीं। यह भावबोध उसे ‘वह थूक’ उठाने को प्रेरित करती है। पर बेचारा क्या करे अब उसे उठा नहीं सकता ऐसे में उस स्वाभिमानी आत्भा के पाष एक ही विकल्प बचता है कि वह अपनी थूक चाट ले, और वह चाट लेता है। बेचारा!!
थूक कर चाटी गई ‘थूक’ का बड़ा महत्व होता है। वह थूकनेवाले के साथ चाटनेवाले को भी प्रसिद्धि दिलाती है। जैसे एक ‘संतासिंह जी’ थे। वे हमेशा अपने शत्रु पड़ोसी ‘बंतासिंह’ के ख़िलाफ़ मूँछों को उमेठ-उमेठकर थूकते रहते थे। बंतासिंह ने उन्हें एक दिन कोल्ड-ड्रिंक पीने आमंत्रित किया तो उन्हें लगा कि वे थूककर बड़ी भूल कर रहे थे। उन्होंने तब, फटाक् से एक टैंकर बुलवाया और जा पहुँचे अपनी थूक बटोरने। अब घर आकर वे उसे टैंकर से निकालकर आजीवन चाटते रहेंगे।
देश को स्वच्छ रखने के लिए अभियान चलाया जा रहा है। इसलिए मेरा आपसे निवेदन है कि पहले तो थूकिए मत। और यदि गलती से थूक देते हो तो उसे साफशकरने के लिए चाटिए मत। भाई साहब! इससे देश की साख को पर धब्बा लगता है, जो छूटता नहीं। कुछ से भी नही और किसी से भी नहीं।
— शरद सुनेरी