कविता
जब भी करता हूँ इक़रार
अपनी चाहत का उससे
सब जानकर भी बनते हुए अंजान
अल्हड़पन से खिलखिलाती
पूछने लगती है व्याख्या एहसासों की
बिल्कुल पगली सी है
कैसे समझाऊं उसे
एहसास व्याख्यायित करने के लिए नहीं होते
होते हैं खुशबू की तरह जो नज़र नहीं आते
रंग होते हैं जो छुए नहीं जाते
बस महसूस किए जातें हैं रूह से
आज फिर उसकी ज़िद
कि बताऊँ उसके ख़ातिर तड़प अपनी
एहसास से परे शब्दों में मुखर
उसे कैसे जताऊं
कि मेरी लत बन गई है वो
हर पल ऐसे ही तड़पता हूँ उसके लिए
जैसे डूबता हुआ कोई
तड़पता है किनारे के लिए
मरता हुआ कोई जैसे तड़पता है एक साँस के लिए
ठीक वैसे ही जैसे
कान्हा की बंसी सुनकर तड़पती थीं ब्रज की गोपियाँ सारी
जैसे लैला-मजनू, हीर-रांझा, सोहनी-महिवाल तड़पते थे एक दूजे के लिए
मछली तड़पती है जैसे पानी से बिछड़ कर
जैसे कोई सदियों का भूखा तड़पता है रोटी के लिए
सहरा में गुम हुआ कोई प्यासा
तड़पता है जैसे एक बूंद के लिए
जैसे कोई भटका हुआ राही तड़पता है मंज़िल के लिए
जैसे कोई ड्रग एडिक्ट तड़पता है ड्रग के लिए
कुछ इसी तरह तड़पता हूँ मैं उसके लिए …..
आभार सहित :- भरत मल्होत्रा।