भीगी राखी
भीगी राखी, रोया सावन।
भईया तुम बिन,सूना आंगन।
दिन बीते जैसे युग गुजरे,
टूट गये अश्कों के पहरे,
आ पहुंचा फिर पर्व सुहावन
भईया तुम बिन सूना आंगन।
परदेसी तुम हुये मुसाफिर,
आ जाओं अब मेंरी ख़ातिर,
कब से राह निहारे है मन।
भईया तुम बिन सूना आंगन।
अब तो माँ बिस्तर पर लेटी,
नाम तुम्हारा रटती रटती,
खो न जाए तुम बिन ये तन।
भईया तुम बिन सूना आंगन।
पापा की कटती ना रातें,
कर डाले कितने जगराते,
छुप छुप के बरसे जल नैनन।
भईया तुम बिन सूना आंगन।
देर हो गई रह गया आना,
राह देखते हुये रवाना,
दोनों बसे अब दूर गगन।
भईया तुम बिन सूना आंगन।
फिर भी हुआ न तेरा आना,
बना मायका अब विराना,
घर आंगन का बिखरा कण कण।
भईया तुम बिन सूना आंगन।
— पुष्पा “स्वाती”