कविता

कविता

ये जो तुम आज ठूंठ देखते हो
कभी हुआ करता था
वृक्ष हरा भरा
जिसकी हरियाली से
थी घर में खुशहाली
शीतल छाया में जिसके
दिन भर की थकन
पल में मिट जाया करती थी

चारों तरफ को विस्तृत शाखाएं
समेट लेती
जेठ की चिलचिलाती
धूप भरी दोपहरी भी
जब खिले थे दो नन्हे फूल
मेरी इन्ही टहनियों पर
सुवासित हो गया था
पूरा घर-आँगन

कितना खुश हुए
फूले नही समाए थे
देख के इन फूलों को
गर्व हुआ था
अपने आँगन के इस पेड़ पर
जो अब फूल के खिल जाने से
और भी खास हो गया था

इसी की सुवास से
कितना आसान था
सबका चैन से श्वास लेना

फूल जब गुलशन बन गए
नही रही जरूरत टहनियों के सहारे की
पतझड़ ने छीन ली
हरियाली और छाया
बेरहम वक़्त ने सुखा ही दिया
ये पेड़ जो कभी
आँगन की शोभा था

लेकिन ठूंठ होकर भी ये
लड़ता है
घर के तरफ होकर
चलने वाली हर आंधी से
ताकि छू न सके
किसी और हरे-भरे वृक्ष को…..

आभार सहित :- भरत मल्होत्रा।

*भरत मल्होत्रा

जन्म 17 अगस्त 1970 शिक्षा स्नातक, पेशे से व्यावसायी, मूल रूप से अमृतसर, पंजाब निवासी और वर्तमान में माया नगरी मुम्बई में निवास, कृति- ‘पहले ही चर्चे हैं जमाने में’ (पहला स्वतंत्र संग्रह), विविध- देश व विदेश (कनाडा) के प्रतिष्ठित समाचार पत्र, पत्रिकाओं व कुछ साझा संग्रहों में रचनायें प्रकाशित, मुख्यतः गजल लेखन में रुचि के साथ सोशल मीडिया पर भी सक्रिय, सम्पर्क- डी-702, वृन्दावन बिल्डिंग, पवार पब्लिक स्कूल के पास, पिंसुर जिमखाना, कांदिवली (वेस्ट) मुम्बई-400067 मो. 9820145107 ईमेल- [email protected]