कविता
ये जो तुम आज ठूंठ देखते हो
कभी हुआ करता था
वृक्ष हरा भरा
जिसकी हरियाली से
थी घर में खुशहाली
शीतल छाया में जिसके
दिन भर की थकन
पल में मिट जाया करती थी
चारों तरफ को विस्तृत शाखाएं
समेट लेती
जेठ की चिलचिलाती
धूप भरी दोपहरी भी
जब खिले थे दो नन्हे फूल
मेरी इन्ही टहनियों पर
सुवासित हो गया था
पूरा घर-आँगन
कितना खुश हुए
फूले नही समाए थे
देख के इन फूलों को
गर्व हुआ था
अपने आँगन के इस पेड़ पर
जो अब फूल के खिल जाने से
और भी खास हो गया था
इसी की सुवास से
कितना आसान था
सबका चैन से श्वास लेना
फूल जब गुलशन बन गए
नही रही जरूरत टहनियों के सहारे की
पतझड़ ने छीन ली
हरियाली और छाया
बेरहम वक़्त ने सुखा ही दिया
ये पेड़ जो कभी
आँगन की शोभा था
लेकिन ठूंठ होकर भी ये
लड़ता है
घर के तरफ होकर
चलने वाली हर आंधी से
ताकि छू न सके
किसी और हरे-भरे वृक्ष को…..
आभार सहित :- भरत मल्होत्रा।