खामोश निगाहें
तेरी ये खामोश निगाहें,
जाने क्या-क्या कहती हैं।
इन आंखों की खामोशी में,
कितनी नदियां बहती हैं।
इन पलों की चिलमन में,
सौ-सौ तस्वीरें सजती हैं।
तेरी खामोश निगाहों में,
तारीफ किसी की पलती हैं।
ये खामोश निगाहें जैसे,
एक इबादत करती हैं।
आहिस्ता से उठकर ऊपर,
शर्म हया से झुकती हैं।
दे पलों की ओट निगाहें,
कितने सपने रचती हैं।
ये कातिल खामोश निगाहें,
किसी पर खुद भी मरती हैं।
— अमिता शुक्ला