तुम
तुम
शब्दों से परे
अहसास की भाषा हो |
निर्विकार
प्रेम की पराकाष्ठा हो |
तन्हा रास्तों में
गीतों का गुंजन हो |
असंख्य तारों की भीड़ में
पूर्णमासी का चाँद हो |
मेरे संचित कर्मो से निर्मित
आशा और विश्वास हो |
महसूस करो . . .
मुझमे बसी सुगंध को
ये सुगन्ध मेरी और तुम्हारी है
इससे जीवित हैं अहसास –
जो भीड़ में खोज लेते हैं एक दूजे को|
तन्हा रातों को
करते हैं गुलज़ार |
आ ! फिर समेट ले अपने दामन में ,
प्यार के ये मोती
आ ! संचित करलें पुनः
प्रीत रीत निष्ठा से
‘मृदुल’
मधुरिम यादों के वो स्वर्णिम तार |
©®मंजूषा श्रीवास्तव”मृदुल”