दास्तां सुनकर क्या करोगे दोस्तो
बचपन में कहीं पढ़ा था
रोना नहीं तू कभी हार के
सचमुच रोना भूल गया मैं
बगैर खुशी की उम्मीद के
दुख – दर्दों के सैलाब में
बहता रहा – घिसटता रहा
भींगी रही आंखे आंसुओं से हमेशा
लेकिन नजर आता रहा बिना दर्द के
समय देता रहा जख्म पर जख्म
नियति घिसती रही जख्मों पर नमक
मैं पीता रहा गमों का प्याला दर प्याला
बगैर शिकवे – शिकायत के
छकाते रहे सुनहरे सपने
डराते रहे डरावने सपने
नाकाम रही हर दर्द की दवा
इस दुनिया के बाजार के
खुशी मिली कम , गम ज्यादा
न कोई प्रीति , न मन मीत
चौंक उठा तब – तब जब मिली जीत
गमों से कर ली दोस्ती
बगैर लाग – लपेट के
— तारकेश कुमार ओझा