कविता

मधुगीति – चन्द्र का प्रतिबिम्ब

चन्द्र का प्रतिबिम्ब,
ज्यों जल झिलमिलाए;
पुरुष का प्रतिफलन,
प्राणों प्रष्फुराए !
विकृति आकृति शशि की,
जल-तल भासती कब;
सतह हलचल चित्र,
सुस्थिर राखती कहँ !
गगन वायु अग्नि जल थल,
थिरकते सब;
द्रष्टि दृष्टा चित्त पल-पल,
विचरते भव !
फलक हर उसकी झलक,
क्षण क्षण सुहाए;
देख पाए सोंप जो हैं,
अहं पाए !
महत में सत्ता डुबाए,
बृह्म भाए;
‘मधु’ के प्रभु अहर्निश,
हर हिय सुहाए !

—  गोपाल बघेल ‘मधु’