नन्ही कली
“नन्ही कली ”
थी एक नन्ही सी कली
सभी कलियों में भली
सुन्दर,प्यारी, मखमली
थी चर्चा उसकी गली गली ।
खिलकर एक दिन वो मुस्काई
प्यारी मुस्कान सबको भाई
कहा उसने लेकर अंगड़ाई
मुझसी सुंदर नहीं जग में कोई ।
मेरी सुगंध फैले ऐसी चहुँ ओर
जैसे रश्मि-रवि उजली करे भोर
जैसे तन को सहलाए शीतल बयार
जैसे मन को भाए प्यार की फुहार ।
हो गई वो अब बड़ी सयानी
निछावर है उसपर अल्हड़ जवानी
अहंकार से उसने गर्दन तानी
सब लगने लगे छोटे ,बेमानी ।
अपने मुंह करती अपनी बखान
जो थे मित्र हुए सब दुश्मन
हुआ फिर पतझड़ का आगमन
खोने लगी वो अपनी पहचान ।
झेल न सकी सूर्य का प्रकोप
धरती गई जब आग सी तप
गर्म हवा की लगी थपेड़े जब
पंखुड़ियां भी अलग हुई तब ।
समय बड़ा होता बलवान
अमीर होता गरीब, गरीब धनवान
सफलता का न कर इतना गुमान
कठिन हो जाए जीना जीवन ।
पल दो पल की है जिंदगानी
उस पर थोड़ी सी है जवानी
बन काबिल पर न बन अभिमानी
छोड़ जग में एक अमिट निशानी ।।
स्वरचित-ज्योत्स्ना पाॅल
मौलिक रचना