कविता

नन्ही कली

“नन्ही कली ”

थी एक नन्ही सी कली
सभी कलियों में भली
सुन्दर,प्यारी, मखमली
थी चर्चा उसकी गली गली ।

खिलकर एक दिन वो मुस्काई
प्यारी मुस्कान सबको भाई
कहा उसने लेकर अंगड़ाई
मुझसी सुंदर नहीं जग में कोई ।

मेरी सुगंध फैले ऐसी चहुँ ओर
जैसे रश्मि-रवि उजली करे भोर
जैसे तन को सहलाए शीतल बयार
जैसे मन को भाए प्यार की फुहार ।

हो गई वो अब बड़ी सयानी
निछावर है उसपर अल्हड़ जवानी
अहंकार से उसने गर्दन तानी
सब लगने लगे छोटे ,बेमानी ।

अपने मुंह करती अपनी बखान
जो थे मित्र हुए सब दुश्मन
हुआ फिर पतझड़ का आगमन
खोने लगी वो अपनी पहचान ।

झेल न सकी सूर्य का प्रकोप
धरती गई जब आग सी तप
गर्म हवा की लगी थपेड़े जब
पंखुड़ियां भी अलग हुई तब ।

समय बड़ा होता बलवान
अमीर होता गरीब, गरीब धनवान
सफलता का न कर इतना गुमान
कठिन हो जाए जीना जीवन ।

पल दो पल की है जिंदगानी
उस पर थोड़ी सी है जवानी
बन काबिल पर न बन अभिमानी
छोड़ जग में एक अमिट निशानी ।।

स्वरचित-ज्योत्स्ना पाॅल
मौलिक रचना

*ज्योत्स्ना पाॅल

भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त , बचपन से बंगला व हिन्दी साहित्य को पढ़ने में रूचि थी । शरत चन्द्र , बंकिमचंद्र, रविन्द्र नाथ टैगोर, विमल मित्र एवं कई अन्य साहित्यकारों को पढ़ते हुए बड़ी हुई । बाद में हिन्दी के प्रति रुचि जागृत हुई तो हिंदी साहित्य में शिक्षा पूरी की । सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर एवं मैथिली शरण गुप्त , मुंशी प्रेमचन्द मेरे प्रिय साहित्यकार हैं । हरिशंकर परसाई, शरत जोशी मेरे प्रिय व्यंग्यकार हैं । मैं मूलतः बंगाली हूं पर वर्तमान में भोपाल मध्यप्रदेश निवासी हूं । हृदय से हिन्दुस्तानी कहलाना पसंद है । ईमेल- [email protected]