विजय पर्व
सदियों से चली आ रही परम्परा को निभा दिया,
इस दशहरे पर रावण को फिर जला दिया,
खूब चले पटाखे, खूब मेला उत्सव सजा लिया,
बुराई पर अच्छाई का ‘विजय पर्व’ मना लिया,
रावण को जला दिया,
क्या रावण सचमुच जल गया —
जो जला वह तो काले कागज़ और बांस का पुतला था,
इसीलिए जला दिया,
क्या रावण सचमुच जल गया,
बुराई का अंत कर अच्छाई का सबब मिल गया,
आज गली गली घूम रहे सफ़ेद पॉश रावण-
कौन उनके विरोध में आवाज़ उठाता है,
हर कोई सहनशील है,
बस सबकुछ देख कर भी सह जाता है.
मारना ही है तो मन के अंदर बैठे रावण को मारो,
इन सफेदपोश रावणो को नक्कारों,
तभी आएगा बुराई पर अच्छाई का ‘विजय पर्व’
अन्यथा हम सदियों से चली आ रही-
इस परम्परा को निभाते रहेंगें ,
कागज़ी रावण को जला कर भी
असली रावण की मार खाते रहेंगें,
— जय प्रकाश भटिया