टूटा हुआ घोंसला
” टूटा हुआ घोंसला ”
बात पुरानी है पर आज भी
मानस-पटल पर है अंकित ,
देखकर वह करूण दृश्य
हुई थी मैं बहुत व्यथित ।
आंगन के एक पेड़ पर
रहते थे दो प्यारे बुलबुल ,
अपने प्रेम में थे मस्त मगन
दुनिया की सारी परेशानी भूल ।
एक-एक तिनका चुनकर
बनाया था एक सुंदर घोंसला ,
प्रफूल्लित होता मेरा मन
देखकर दोनों का हौसला ।
देखकर एक दिन दो अंडों को
आनंद से नाच उठा मन ,
भूखे पेट प्यासी बुलबुल
अंडों को सेंकती करके जतन ।
दो नन्हें प्यारे बच्चे निकले
कुछ दिनों के पश्चात ,
दाना चुनकर खिलाते बुलबुल
करने मेहनत जुट जाते होते प्रभात।
मन आनंदित हो उठता मेरा
ये मनोरम दृश्य निहारकर ,
एक नन्ही सी चिड़िया का
ममत्व भरा ये रूप देखकर ।
उड़ने को बेताब थे बच्चे
नापना चाहते थे नीलाकाश ,
पंख फड़फड़ाते दोनों रोज
मन में लेकर उड़ने की आस ।
पर हाय भाग्य!नियति का लेखा
दोनों को नहीं था पता ,
माता-पिता गये दाना चुगने
विधाता ने की बड़ी निर्ममता ।
एक सैयाद ने मारा झपटा
बच्चों को ले भागा दबोचकर ,
देखते ही देखते लूट गया
दोनों बुलबुल का प्यारा संसार ।
मन करूणा से भर उठा
देखकर यह दृश्य हृदय विदारक ,
हतप्रभ खड़ी रह गई मैं
लुप्त हो गई चेतना अचानक ।
बिलखते रहे दोनों दो दिनों तक
भूखे-प्यासे बैठ पेड़ की शाख पर,
नियति का यह क्रूर नियम
आघात किया मेरे हृदय पर ।
मनुष्य की पीड़ा से , पशु-पक्षी
की पीड़ा नहीं होती कम ,
याद आते ही वो घटना
आज भी आंखें मेरी होती है नम ।
पूर्णतः मौलिक-ज्योत्स्ना पाॅल ।