अतीत के कोने से
“अतीत के कोने से ”
आज फिर दौड़ गया मन
अतीत की सुनहरी राहों में
याद आ गई दिन बचपन के
बीते जो मां की बाहों में ।
दिन भर खेलना धूल-माटी में
और घुमना स्वच्छन्द निडर
आते ही घर के आंगन में
पड़ती प्यार भरी फटकार ।
अभिमान से मुंह फुल जाता
माँ हाथों से दुलार देती
भूख लगी है कुछ खा लो
चुपके से कान में कहती ।
अपार आनन्द से मन उछल पड़ता
छलक जाती खुशी नैनों से
माँ का ह्रदय भी द्रवित होता
लगा लेती झट गले से ।
सुख-दुख से परे था जीवन
चिंताओं से कोसों दूर
ऊंच-नीच का ज्ञान न था
न किसी से कोई डर ।
सब थे अपने न कोई पराया
न किसी से कोई बैर भाव
प्यार के धागे से बंधा था
मेरा छोटा सा वह गांव ।
छूट गई बचपन की गलियां
बिछड़ गये सब अपने
यादों के झरोखे से झांकें
कुछ बिखरे हुए सपने ।
चाहकर भी ममता की छाँव से
आज बहुत ही दूर हूँ
जीवन के इस लाभ-हानी में
व्यस्त हूँ , मज़बूर हूँ ।
ज्योत्स्ना की कलम से
मौलिक रचना