कविता ।
फिर उमड़-उमड़ कर निकल पड़े कुछ शब्द मन के गलियारों से।
लिखने इक नई कविता कोई आपबीती कुछ अंजाने विचारों से।
तुम जब पड़ोगे शब्दों को दोष न देना फिर कुछ हमको ;
शब्द तो साझे हैं सबके न सोचना इन्हें अपने सितारों से।
कुछ दुआ भी है कुछ हुआ भी है शब्दों ने जो रच डाला है;
लहरें जो उठ रही हैं पल-पल टकराती सागर के किनारों से।
दिल कहता कुछ ओर है मस्तिष्क पर न कोई ज़ोर है;
कुछ शब्द टकराते हैं आपस में कुछ बन रहे इनके ईशारों से।
इक महल था ख्वाबों का जो टूट कर अब खंडहर सा लगे;
चीख-चीख कर कहती है अपनी कोई कहानी उन ऊंचे मीनारों से।
– कामनी गुप्ता
जम्मू !