उद्घोष करना है जरूरी…
हाकिमों का दंभ बढ़कर आसमां छूने लगे जब।
देश में जन क्राँति का उदघोष करना है जरूरी।।
भूल कर जब धर्म सत्ता, हो विमुख कर्त्तव्य पथ से
न्याय कुचला जा रहा हो, हर घड़ी जब राज रथ से।
श्वेद से सींची फसल को, लूटती जब मंडियाँ हों
राजपथ पर जश्न हो जब, ग़मजदा पगड़ंडियाँ हों।।
रुक रही हर साँस में तब जोश भरना है जरूरी…
देश में जन क्राँति का उदघोष करना है जरूरी…
पुष्प अपना रंग खोएं, कोपलें मुरझा रही हों
द्वेष की तपती हवाएं, प्रीत को झुलसा रही हों।
छोड़ अपना धर्म कविगण, जो कहे दरबार लिक्खें।
सत्य पर साधें निशाना, झूठ की जयकार लिक्खें।।
तब कहीं पर सत्य के स्वर का उभरना है जरूरी…
देश में जन क्राँति का उदघोष करना है जरूरी…
ढ़ोग के बढ़ते हुए नख, नोचते हों धर्म का तन
और छलनी हो रहा हो, रातदिन सदभाव का मन।
कुर्सियों की चाहतें जब, आग बस्ती में लगाएं
हो चलें मृतप्राय जग से, जब सभी संवेदनाएं।।
तोड़कर तब मौन को हुंकार भरना है जरूरी…
देश में जन क्राँति का उदघोष करना है जरूरी…
मैं करूँगा तुम करोगे, हम सभी मिलकर करेंगे
सामना हर झूठ का या, दंभ का डँटकर करेंगे।
आईये सब आईये अब, दीजिये ललकार मिलकर
अब मिटाना है वतन से, पाप अत्याचार मिलकर।।
आग के इस ताल से अब हाँ गुजरना है जरूरी…
देश में जन क्राँति का उदघोष करना है जरूरी…
सतीश बंसल
१३.०९.२०१८