बहुत बेचैन हैं कलियाँ गुलों का रंग फ़ीका है
बहुत बेचैन हैं कलियाँ गुलों का रंग फ़ीका है
ये मंज़र साफ़ कहता है यकींनन ड़र किसी का है
गुलों पर मिल रही है देखिये तरजीह ख़ारों को
ये कैसा बागबां का बागबानी का तरीका है
किसी को मंदिरों की है किसी को फ़िक्र मस्ज़िद की
मगर दिल में हमारे ग़म सिसकते आदमी का है
बयां करके हक़ीक़त शुहरतें हासिल नही होतीं
कहे जो झूठ अब दरबार में जलवा उसी का है
नया सूरज उगाया रोशनी के गीत भी गाए
मगर सच है यही शाशन अभी भी तीरगी का है
उसे कुर्सी फ़कत कुर्सी फ़कत कुर्सी से है मतलब
सिवा उसके सियासतदान होता कब किसी का है
बहुत बेचैन रहता है नही मिलता अगर हमसे
असर उस पर यक़ीनन ये हमारी शायरी का है
सतीश बंसल
११.०९.२०१८