मानसिकता बदल गई!
हमारी एक पाठक-कामेंटेटर सखी का प्रथम सृजन
अक्सर अखबार और सोशल मीडिया में पढ़ती रहती हूं. कि पिछले कई सालों से महिला सशक्तिकरण का खूब बोलबाला है और इसका असर भी दिखने को मिल रहा है. लोगों की मानसिकता (खासकर पुरुषों की) भी बदल रही है. जहां पहले कुछ महिलाएं ही घर से बाहर कदम रखती थीं, वहीं अब घर-घर से महिलाएं बाहर आ रही हैं और पुरुषों के साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर न केवल अच्छा काम कर रही हैं, नए-नए इतिहास भी रच रही हैं. मैं सोचने लगती कि वास्तविकता कुछ और है.
हम महिला सशक्तिकरण को लेकर, बाहर तो खूब भाषण देते हैं, लेकिन जब अपने ही घर में वो अपनों से ही प्रताड़ित होती है, तो हमारी आवाज़ को क्या हो जाता है? हम क्यों मजबूरी का चोला पहने चुपचाप उसे सहते हैं. मैंने अपने आस पास ऐसी कई महिलाओं को देखा है,जो अपनों से ही प्रताड़ित होती हैं और प्रताड़ना इतनी पराकाष्ठा पर पहुंच जाती है, कि उसका उसका दुःखद अंत अकल्पनीय होता है.
ऐसी ही कगार पर पहुंची एक लड़की को मैंने जिंदगी से संघर्ष करते देखा. हर पल एक नई चुनौती, फिर भी वो नहीं घबराती, लेकिन इस मुश्किल घड़ी में जब अपनों का साथ न हो तो भला कोई कब तक और कैसे चुनौतियों का सामना कर सकता है? पति की प्रताड़ना से तंग आकर उसने मायके में शरण ली, उस पर दो बच्चों की जिम्मेवारी भी. उम्मीद की किरण तब नज़र आई, जब उसे एक छोटी-सी नौकरी मिली. अपने काम को पूरी ईमानदारी से निष्ठापूर्वक करती भी थी और इस कर्त्तव्य के लिए सराही भी जाती थी, लेकिन उसकी ईमानदारी लोगों को इतनी खटकने लगी कि उसकी सुंदरता और चरित्र पर भी बात आ गई. लोग तरह-तरह की छींटाकशी भी करने लगे. ऐसा तब होता है, जब अपना ही सिक्का खोटा हो. पति से तिरस्कार तो झेल ही रही थी और अब ये जमाने वाले भी क्योंकर पीछे रहते! जब लोगों को आपकी कमजोरी का पता चल जाये, तो वो उसे हथियार बनाने से कतई नहीं चूकते. इन सब बातों से वो इतनी आहत हो गई थी, कि जिंदगी की जंग को हार कर उसने फांसी के फंदे पर झूलने की बात भी सोच ली.
लेकिन रुकिए, क्या उसने ऐसा किया? बिलकुल नहीं. उसने अपने दो मासूम बच्चों के भविष्य की बात सोचकर साहस से काम लिया. कहते हैं अंत भला तो सब भला, उसकी मां ने उसे सिलाई-कढ़ाई के हुनर की याद दिलाई. नौकरी से इस्तीफा देकर वह सिलाई-कढ़ाई के स्कूल का आकर्षक बैनर व पोस्टर बनवा लाई. फिर क्या था! एक तरफ उसको सिलाई-कढ़ाई का काम मिलने लगा, दूसरी तरफ उसका सिलाई-कढ़ाई स्कूल भी चल निकला.
पत्नि के मायके चले जाने पर पति को समझ आया, कि घर किसके भरोसे चलता था और खुशियां किसको कहते हैं? उसने पत्नि का हाल पता करवाया. उसे पता नहीं था कि उसके जुल्म से दबी-कुचली पत्नि वर्तमान परिस्थितियों से लड़ने की इतनी हिम्मत रखती है! एक दिन ऐसा भी आया, कि वह हिम्मत जुटाकर पत्नि के मायके आया. पत्नि से आंख मिलाने की तो उसकी हिम्मत नहीं ही हुई, पर उसने अपनी सास के पांव पकड़कर माफी मांगी और सुलह करवाने का अनुरोध किया.
पति की मानसिकता बदल गई थी, पर पत्नि के साहस के दम पर.
अर्पिता दास
प्रिय सखी अर्पिता जी, आपकी पहली रचना पढ़ी. ऐसा महसूस हुआ, कि अब महिलाओं को अबला से सबला बनने से कोई नहीं रोक सकता. आप पहले हमारे ब्लॉग पर पाठक और कामेंटेटर के रूप में आईं, आपने अपनी पहली ही रचना हमारे ब्लॉग को समर्पित की, आपका हृदय से शुक्रिया और धन्यवाद. आपने बिलकुल दुरुस्त फरमाया है. अगर कोई मुश्किल वक़्त में भी हिम्मत से काम ले तो उसे मंजिल जरूर मिलती. एक प्रतिक्रिया में आपने लिखा था- ”यही तो विडंबना है महिलाओं की उसे हर रूप में और हर जगह अपने आप को साबित करना पड़ता है.” आज आपने एक महिला की ऐसी ही दास्तां भी लिख दी. एक बार पुनः आपका हृदय से शुक्रिया और धन्यवाद.