जीवन सन्ध्या
“जीवन-संध्या”
बरसों से यूँ
ख़ामोश खड़ा
निहार रहा हूँ
आते-जाते एक एक
राहगीर को ।
कभी वो बैठा करते थे
मेरी छाया में ,
ठंडी बयार दुलार जाती थी
उनके तन मन को ।
और वो कुछ पल बैठकर
शांति की छाँव में
बढ़ जाते अपने उद्देश्य पथ पर ।
फागुन में भौंरों की गूंजन
घोलती थी मिठास मेरे कानों में ।
मैं चहक उठता
जैसे पहला बसंत
आया मेरे जीवन में ।
पक्षियों का चहचहाना
बैठकर मेरी शाखों पर ,
ऐसा प्रतीत होता
मानो कर रहीं हो
प्रेमालाप आपस में ।
लता -वल्लरियों का
लिपटना मेरे तन से ,
रोमांचित कर जाता मुझे ।
आज “जीवन-संध्या” में
जब सूख गई डालियां
झड़ गई पत्तियां ,
फागुन में नहीं खिलते फूल ।
नहीं आते भंवरें
मधुरस के लिए ।
नहीं बैठती पक्षियां
सूखी डालियों पर ।
नहीं पड़ती कानों में
आहट किसी के पदचाप की ।
चारों ओर फैली है
केवल उदासी
एक सन्नाटा ।
स्वरचित-ज्योत्स्ना
मौलिक रचना