कविता

जीवन सन्ध्या

“जीवन-संध्या”

बरसों से यूँ
ख़ामोश खड़ा
निहार रहा हूँ
आते-जाते एक एक
राहगीर को ।
कभी वो बैठा करते थे
मेरी छाया में ,
ठंडी बयार दुलार जाती थी
उनके तन मन को ।
और वो कुछ पल बैठकर
शांति की छाँव में
बढ़ जाते अपने उद्देश्य पथ पर ।
फागुन में भौंरों की गूंजन
घोलती थी मिठास मेरे कानों में ।
मैं चहक उठता
जैसे पहला बसंत
आया मेरे जीवन में ।
पक्षियों का चहचहाना
बैठकर मेरी शाखों पर ,
ऐसा प्रतीत होता
मानो कर रहीं हो
प्रेमालाप आपस में ।
लता -वल्लरियों का
लिपटना मेरे तन से ,
रोमांचित कर जाता मुझे ।
आज “जीवन-संध्या” में
जब सूख गई डालियां
झड़ गई पत्तियां ,
फागुन में नहीं खिलते फूल ।
नहीं आते भंवरें
मधुरस के लिए ।
नहीं बैठती पक्षियां
सूखी डालियों पर ।
नहीं पड़ती कानों में
आहट किसी के पदचाप की ।
चारों ओर फैली है
केवल उदासी
एक सन्नाटा ।

स्वरचित-ज्योत्स्ना
मौलिक रचना

*ज्योत्स्ना पाॅल

भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त , बचपन से बंगला व हिन्दी साहित्य को पढ़ने में रूचि थी । शरत चन्द्र , बंकिमचंद्र, रविन्द्र नाथ टैगोर, विमल मित्र एवं कई अन्य साहित्यकारों को पढ़ते हुए बड़ी हुई । बाद में हिन्दी के प्रति रुचि जागृत हुई तो हिंदी साहित्य में शिक्षा पूरी की । सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर एवं मैथिली शरण गुप्त , मुंशी प्रेमचन्द मेरे प्रिय साहित्यकार हैं । हरिशंकर परसाई, शरत जोशी मेरे प्रिय व्यंग्यकार हैं । मैं मूलतः बंगाली हूं पर वर्तमान में भोपाल मध्यप्रदेश निवासी हूं । हृदय से हिन्दुस्तानी कहलाना पसंद है । ईमेल- [email protected]