विरोध का सच
“अंग्रेजी नववर्ष नहीं मनेगा….देश का धर्म नहीं बदलेगा…” जुलूस पूरे जोश में था। देखते ही वह राष्ट्रभक्त समझ गया कि जुलूस का उद्देश्य देशप्रेम और स्वदेशी के प्रति जागरूकता फैलाना है और वह भी उसमें शामिल होकर नारे लगाते हुए चलने लगा।
उसके साथ के दो व्यक्ति बातें कर रहे थे,
“बच्चे को इस वर्ष विद्यालय में प्रवेश दिलाना है। कौनसा ठीक रहेगा?”
“यदि अच्छा भविष्य चाहिये तो शहर के सबसे अच्छे अंग्रेजी स्कूल में दाखिला दिलवा दो।”
उसने उन्हें तिरस्कारपूर्वक देखा और नारे लगाता हुआ आगे बढ़ गया, वहां भी दो व्यक्तियों की बातें सुनीं,
“शाम का प्रोग्राम तो पक्का है?”
“हाँ! मैं स्कॉच लाऊंगा, चाइनीज़ और कोल्डड्रिंक की जिम्मेदारी तुम्हारी।”
उसे क्रोध आ गया, वह और जोर से नारे लगाता हुआ आगे बढ़ गया, वहां उसे फुसफुसाहट सुनाईं दीं,
“बेटी नयी जीन्स की रट लगाये हुए है…”
“तो क्या आजकल के बच्चों को ओल्ड फेशन सलवार-कुर्ता पहनाओगे?”
उत्तर सुनते ही वह हड़बड़ा गया। अब वह सबसे आगे पहुँच गया था, जहाँ खादी पहने एक हिंदी विद्यालय के शाकाहारी प्राचार्य जुलूस की अगुवाई कर रहे थे। वह उनके साथ और अधिक जोश में नारे लगाने लगा।
तभी प्राचार्य का फ़ोन बजा, एक अंतर्राष्ट्रीय स्तर के फ़ोन पर वह बात करने लगे। उसने सुना वह कह रहे थे, “हाँ हुज़ूर, सब ठीक है, लेकिन इस बार रुपया नहीं डॉलर चाहिये, बेटे से मिलने अमेरिका जाना है।”
सुनकर वह चुपचाप वहीँ खड़ा हो गया। जुलूस आगे निकल गया, लेकिन उसके मन में नारों की आवाज़ बंद नहीं हो रही थी। उसने अपनी जेब से बुखार की अंग्रेजी दवाई निकाली, उसे कुछ क्षणों तक देखा फिर उसके चेहरे पर मजबूरी के भाव आये और उसने फिर से दवाई अपनी जेब में रख दी।