क्षेत्रवाद का नँगा नाच
बहरहाल गुजरात से यू पी, बिहार के लोगों का खदेड़ा जाना, महाराष्ट्र में मानवता को तिलांजलि देकर मार-पिटाई करना जैसी शर्मनाक घटनाएँ क्या राष्ट्रीयता को शर्मसार नहीं करती ? जबकि यू पी और बिहार में प्रायः सभी राज्यों के लोग बखूबी जीवन-यापन कर रहे हैं। यदि प्रतिशोध की चिंगारी शोला बन जाय तो उन राज्यों का क्या होगा जो स्वयं को विकसित और औद्योगिक मानते हैं। खासकर मजदूरों के पलायन से राज्य का विकास ही प्रभावित होगा। जिसकी चिंता शायद ही किसी राजनैतिक दल को हो।
पलायनवाद का दंश खासकर यू पी, बिहार के अलावा कई राज्यों के लोग भोग रहे हैं। गुजरात हो या महाराष्ट्र,पूर्वोत्तर भारत के कई राज्य हों या कश्मीर लगभग पूरा देश बेरोजगारी औ हक के नाम पर, क्षेत्रवाद, भाषावाद के नाम पर उबल ही नहीं रहा बल्कि देश विभाजन के कगार पर खड़ा है। और राजनैतिक दल सत्ता-स्वार्थ में औंधा पड़ा है।
वर्तमान पीढ़ी को शायद मालूम हो या न हो कि अंग्रेजों की मंशा आजाद भारत को अखण्ड देखने की रही ही नहीं। आजादी की घोषणा से तत्काल बाद ही 565 रियासतों को भी स्वनिर्णय का अधिकार दे दिया। जो रियासत भारत या पाकिस्तान, जिसके साथ रहना चाहे रहे । ताकि भारत टुकड़ों में बंटा रहे क्योंकि भारत अखण्ड रहकर भविष्य में विश्व के महाशक्तियों के लिए चुनौतियाँ न खड़ी कर पाए। साथ ही आर्थिक दोहन भी अनवरत होता रहे।
प्रमाण, सम्प्रदाय के आधार पर अखण्ड भारत का दो भागों में विभाजन, वो भी नफरतों के बीज बो कर। यही से शुरू होती है राजनीति की पथभ्रष्ट दिशा। जिसका एक सिरा पाकिस्तान के रूप में जिन्ना के हाथ में तो दूसरा सिरा भारत में। पर, राजनीति औ सत्ता विखण्डिकरण के विसात पर बिछाई जाती रही।
वर्तमान में यह कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगी कि- राजनैतिक दलों की दिखावटी नकाब बेशक, लोकतांत्रिक व्यवस्था के नाम पर लोकोपयोगी दिखें पर, सत्ता पर काबिज होने के लिए कहीं विदेशी एजेंट के रूप में कार्यरत तो नहीं ?
हर चुनाव के मद्देनजर उस विखण्डिकरण के निमित्त षड्यंत्रों को अमली जामा पहनाया जाता रहा है। जाति-धर्म-सम्प्रदायों के नाम से भी आगे अब समाजिक कुरीतियाँ बलात्कार औ मोबलिनचिंग के नाम पर जिस चिंगारी को हवा दिया जा रहा है, निश्चित ही देशहित में उचित नही कहा जा सकता। इससे देश कमजोर होता है और एक कमजोर राष्ट्र विश्व पटल पर गुलाम ही कहलाता है।
यही मंशा तो उन विदेशी महाशक्तियों की है। इसी विखण्डिकरण की मंशा के अनुरूप राजनैतिक दलों की स्थापना भी हुई।
कोई वामपंथ तो कोई दक्षिणपंथ या फिर समाजवाद के नाम पर और भी कई राजनैतिक दल देश के कई राज्यों में कार्यरत हैं, जो क्षेत्रवाद, भाषावाद के नाम पर विदेशी मंशा के अनुरूप विखण्डिकरण के षड्यंत्र का औचित्य ही सिद्ध करने पर तुले हैं। शायद इसलिए भी विदेशी चन्दा के नाम पर सहायता राशि का राज, कोई भी राजनैतिक दल, खोलना नहीं चाहती।
सत्ता के छाँव में लूटने की जो परम्परा अंग्रेजों ने डाली है कानून बनाकर उसी परम्परा और संविधान सम्मत कानूनों के आलोक में देश पल रहा है। विदेशी शक्तियाँ दूर बैठकर चौपड़ के पाशे चल रहा है उसी रेखाचित्र के सहारे भारत की राजनीति भी चल रही है।
सत्ता पाने के लिए कितनी कुत्सित घटनाओं के दृश्य सोशल मीडिया, प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया द्वारा बढ़-चढ़कर परोसा जाना लगता है राजनीति की दशा-दिशा तय करने की भूमिका निभाने लगा है। क्योंकि उदारीकरण के नाम पर विदेशी शक्तियों को भूमिका निभाने छूट ही दे गई। लूट का आलम ये है कि अनाजों के अकूत भंडार देश मे मौजूद होने के बावजूद भी आयात करने की मजबूरी है। लूट की कड़ी का एक सिरा देश में तो दूसरा सिरा विदेशियों के हाथ में। व्यवस्था औ नेता जितना लूट पाते है लूटते हैं और सबों से मनमाना रंगदारी, विज्ञापन औ पीत पत्रकारिता के माध्यम से वसूल कर विदेशों को ही समृद्ध करते हैं।
इस तरह हम भारतवासी, मानवतावादी रत्नाकर हैं, जिनका आर्थिक शोषण खुलेआम होता आ रहा है क्योकि हम उदार हैं, कर्जदार हैं। क्योंकि हमसबों ने मान लिया है “ऋणम कृत्वा घृतं पिबेत।” बेशक, पसीने की हर बून्द से आजीवन आका के कर्ज को उतार भी न पायें। बेशक इसका खामियाजा भावीपीढ़ी भुगतें। मगर, हम खुशहाल रहें चाहे जिस हाल रहें।
क्या वर्तमान राजनीति विदेशी आकाओं को खुशकर अधिक से अधिक सहायता राशि प्राप्त करने के एवज में लूट की छूट देने और देश को अस्थिर करने के निमित सहयोगी की भूमिका में हैं ?
— स्नेही “श्याम”