“झिनकू भैया के प्रपंची आँसू”
“झिनकू भैया के प्रपंची आँसू”
एक आँख से विनाशक बाढ़ व दूसरी आँख से फसलों को सुखाने वाला हृदय विदारक सूखा देखकर झिनकू भैया की आँखे पसीजने लगी जो चौतरफा दृश्य परिवर्तन के तांडव को देखकर छल-छल बहने की आदी तो हो ही गई है, अब तो उसे जीना और पीना भी है। बड़े ही भावुक और चिंतनशील आदमी हैं झिनकू भैया, जब धारा 377 की बात सुने तो चिग्घाड़ मार कर रोने लगे और अब धारा 394 पर सिसक-सिसककर आँसू बहाए जा रहे है। कहते हैं अब क्या होगा, कैसे बैतरणी पार होगी, संस्कार और संस्कृति कैसे जीवित रहेगी? इत्यादि। पुराने ख्याल के आदमी हैं, पुरानी सोच लिए घूमते रहते हैं और पेपर पढ़कर उसी से आँख पोछते रहते हैं। कइयों ने उनको शुद्ध हिंदी में समझाने का प्रयास भी किया कि भैया! आप बेकार की चिंता करते हैं सब कुछ समय के अनुसार चला है और चलता रहेगा। कभी आकाश घिर जाता है तो कभी समंदर बौखला जाता है पर नदियाँ अपना रुख तो नहीं मोड़ती। कितना कचरा लोग डाल रहे हैं नदियों में फिर भी उनका समंदर में जाकर गिरना/मिलना रुका तो नहीं न।
रोज-रोज जाति-पाति का अपना बखड़जन्तर चल ही रहा है, कोई ऊपर तो कोई नीचे जाकर वापस आ ही रहा है। राजनीति अपने आप में महान है ही, स्वच्छंद होकर गाँव-गाँव घूम ही रही है और बेरोजगार भीड़ मंहगाई का पुलिंदा लिए सत्याग्रहियों को शाबासी दे ही रही है। पाखण्डी बाबा लोग अपना वैभवी साम्राज्य छोड़ने को मजबूर हो ही रहे है जेल भर ही रही है। आतंकवादी, अलगाववादी और नक्सलवादी सबकी अपनी डफ़ली समयानुसार बज ही रही है। किस-किसके गिरेबान में हाथ डालकर आँसू बहाओगे भैया!, मान लो अब सुधरने की बारी तुम्हारी है अगर सकून से जीना है तो गरमा-गरम तंदूरी व तले हुए पापड़ का स्वाद लो, घर की रोटी की चित्ती मत गिनों और दाल का छौंका मत निहारों, राम का नाम जपो और अपने बिस्तर पर लेटे रहो।
महातम मिश्र, गौतम गौरखपुरी