कविता

भूखा बचपन

जब भूखा हो बचपन तो फिर
प्रगति की बात कहां भांती है,
देख अस्वस्थ मासूमों को
दुखती मेरी अपनी छाती है।

भूखे प्यासे बच्चे भटकते हैं
अली- गली और सड़कों पर,
तन पर कपड़े नहीं है इनके
रहने को नहीं है कोई घर।

कुपोषण से पीड़ित यह बच्चे
इनके शरीर में नहीं है शक्ति,
शिक्षा से कोसों दूर यह बच्चे
कैसे जगेगी इनमें देश भक्ति।

आंखों की उदासी में इनकी
धुंधला गए हैं सारे सपने,
भूखे पेट, जर्जर शरीर में
सपने होते नहीं है अपने।

लाखों पीड़ित बच्चे देश में
चेहरा देश का कैसा होगा,
वर्तमान इतनी दुखदाई है
भविष्य कैसे सुखद होगा।

तन पर ‌ कपड़े नहीं इनके
पेट में इनके नहीं होती रोटी,
रोग में दवा नहीं मिलती
बात नहीं है यह कोई छोटी।

रीढ़ की हड्डी है ये देश की
है भविष्य के ये कर्णधार,
इनकी प्रगति के बिना,देश
की प्रगति का नहीं आधार।

शक्तिशाली नींव के बिना
कैसे खड़ी रहेगी इमारत,
जब यह बच्चे होंगे स्वस्थ
बनेगा तब सशक्त भारत।

थाम लें इन बच्चों के हाथ
आओ मिलकर करें प्रयास,
इन के सपने होंगे साकार
जगा दे इनके मन में आस ।

पाले सपना ये भी ह्रदय में
कर पाए उसे फिर साकार,
निकलकर दुखों के सागर से
जीवन को दे सकें सुंदर आकार।

तभी उन्नत होगा देश का शीष
बढ़ेगा मान इस सम्पूर्ण धरा पर,
करेगा नमन भारत को विश्व
श्रद्धा से वह नत मस्तक होकर।

पूर्णतः मौलिक-ज्योत्स्ना पाॅल।

*ज्योत्स्ना पाॅल

भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त , बचपन से बंगला व हिन्दी साहित्य को पढ़ने में रूचि थी । शरत चन्द्र , बंकिमचंद्र, रविन्द्र नाथ टैगोर, विमल मित्र एवं कई अन्य साहित्यकारों को पढ़ते हुए बड़ी हुई । बाद में हिन्दी के प्रति रुचि जागृत हुई तो हिंदी साहित्य में शिक्षा पूरी की । सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर एवं मैथिली शरण गुप्त , मुंशी प्रेमचन्द मेरे प्रिय साहित्यकार हैं । हरिशंकर परसाई, शरत जोशी मेरे प्रिय व्यंग्यकार हैं । मैं मूलतः बंगाली हूं पर वर्तमान में भोपाल मध्यप्रदेश निवासी हूं । हृदय से हिन्दुस्तानी कहलाना पसंद है । ईमेल- [email protected]