गज़ल
अलस्सुबह के हसीं आफताब जैसा है
मेरे महबूब का चेहरा गुलाब जैसा है
उसमें अक्स अपना देखूँ या पढूँ मैं उसे
दिल आईना है और बदन किताब जैसा है
डूबती जा रही है मेरी हस्ती कि उसका
जैसे एक – एक आँसू सैलाब जैसा है
जिन्हें कल हमने सिखाया था बोलने का हुनर
अब उनका लहज़ा भी आली-जनाब जैसा है
ज़िंदगी तो वही थी जितनी तेरे साथ कटी
बिछड़ के तुझसे जीना तो अज़ाब जैसा है
— भरत मल्होत्रा