कविता

वो नदी

वो नदी जो गांवों के पगों को
पखारती हुई, कल कल ध्वनि करती हुई,
आगे की ओर बहती थी।
वो नदी जो पोषण करती थी गांवों को,
अपने जल से सींच कर
उगाती थी फसलों को।
उसके अमृतसम जल को पीकर
फसलें खुशी से लहलहाती थी।
उसके दोनों किनारों पर संचारित
हो रहा था जीवन का प्रवाह।
उस जीवन प्रवाह में घुला हुआ था
जीवन के खुशी के नवरंग।
वो नदी जिसने अपने स्वच्छ एवं मीठा
जल पिलाया करती थी मवेशियों को।
पीकर जल वे खुशी से चल पड़ते थे
अपने अपने ठिकाने की ओर।
वो नदी जिसके स्वच्छ शीतल जल में
मछलियां तैरकर आनंदित होती थी,
और स्वयं को जल की रानी समझती थीं।
वो नदी जिसके प्रवाह में
बच्चे डुबकी लगाकर करते थे प्रयास
एक दूजे को छूने की।
और किनारे पर बैठकर बनाते थे
घरौंदा रेत का।
वो नदी जिसके स्वच्छ जल के आईने में
सुंदरियां अपनी छवि निहारती थी।
वो नदी जिसका मीठा जल गांव की
रमणियां गागर भर ले जाया करती थीं।
उनकी पंक्ति ऐसा प्रतीत होता
जैसे सुंदरियां मधुर कोई प्रेम गीत गाकर
बलखाती हुई चली जा रही हैं।
वो नदी बरसात में, ऐसी उफनती थी
जैसे वह बादलों से क्रोधित होकर
अपना विकराल रूप दिखा रही हो।
वो नदी अब मानव के अनाधिकृत
हस्तक्षेप के कारण अपने जल को जैसे
स्वयं में समेट कर, दुखी होकर,
कहीं विलीन हो गई है।
रह गई है तो केवल मुट्ठी भर रेत!!!

पूर्णतः मौलिक-ज्योत्स्ना पाॅल।

*ज्योत्स्ना पाॅल

भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त , बचपन से बंगला व हिन्दी साहित्य को पढ़ने में रूचि थी । शरत चन्द्र , बंकिमचंद्र, रविन्द्र नाथ टैगोर, विमल मित्र एवं कई अन्य साहित्यकारों को पढ़ते हुए बड़ी हुई । बाद में हिन्दी के प्रति रुचि जागृत हुई तो हिंदी साहित्य में शिक्षा पूरी की । सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर एवं मैथिली शरण गुप्त , मुंशी प्रेमचन्द मेरे प्रिय साहित्यकार हैं । हरिशंकर परसाई, शरत जोशी मेरे प्रिय व्यंग्यकार हैं । मैं मूलतः बंगाली हूं पर वर्तमान में भोपाल मध्यप्रदेश निवासी हूं । हृदय से हिन्दुस्तानी कहलाना पसंद है । ईमेल- [email protected]