वो नदी
वो नदी जो गांवों के पगों को
पखारती हुई, कल कल ध्वनि करती हुई,
आगे की ओर बहती थी।
वो नदी जो पोषण करती थी गांवों को,
अपने जल से सींच कर
उगाती थी फसलों को।
उसके अमृतसम जल को पीकर
फसलें खुशी से लहलहाती थी।
उसके दोनों किनारों पर संचारित
हो रहा था जीवन का प्रवाह।
उस जीवन प्रवाह में घुला हुआ था
जीवन के खुशी के नवरंग।
वो नदी जिसने अपने स्वच्छ एवं मीठा
जल पिलाया करती थी मवेशियों को।
पीकर जल वे खुशी से चल पड़ते थे
अपने अपने ठिकाने की ओर।
वो नदी जिसके स्वच्छ शीतल जल में
मछलियां तैरकर आनंदित होती थी,
और स्वयं को जल की रानी समझती थीं।
वो नदी जिसके प्रवाह में
बच्चे डुबकी लगाकर करते थे प्रयास
एक दूजे को छूने की।
और किनारे पर बैठकर बनाते थे
घरौंदा रेत का।
वो नदी जिसके स्वच्छ जल के आईने में
सुंदरियां अपनी छवि निहारती थी।
वो नदी जिसका मीठा जल गांव की
रमणियां गागर भर ले जाया करती थीं।
उनकी पंक्ति ऐसा प्रतीत होता
जैसे सुंदरियां मधुर कोई प्रेम गीत गाकर
बलखाती हुई चली जा रही हैं।
वो नदी बरसात में, ऐसी उफनती थी
जैसे वह बादलों से क्रोधित होकर
अपना विकराल रूप दिखा रही हो।
वो नदी अब मानव के अनाधिकृत
हस्तक्षेप के कारण अपने जल को जैसे
स्वयं में समेट कर, दुखी होकर,
कहीं विलीन हो गई है।
रह गई है तो केवल मुट्ठी भर रेत!!!
पूर्णतः मौलिक-ज्योत्स्ना पाॅल।