ग़ज़ल- वाह नहीं है
किसको धन की चाह नहीं है?
लेकिन मुझको डाह नहीं है.
उसकी फ़िक्र करूँ क्यों जिसको,
मेरी कुछ परवाह नहीं है.
मंज़िल की बातें करता वो,
पाने का उत्साह नहीं है.
उसको एक नज़र भर देखा,
यह तो कोई गुनाह नहीं है.
ठोकर पर खाता है ठोकर,
फिर भी वो आगाह नहीं है.
ज़िम्मेदार भले ना हो वो,
लेकिन लापरवाह नहीं है.
घर का सारा काम करे वो,
बस पाती तनख़्वाह नहीं है.
“आह” न हो जब तक कविता में-
तब तक होती “वाह” नहीं है.
— डॉ. कमलेश द्विवेदी