गीत
बरस दर बरस फूँक रहे हैं, सदियों से जिनके पुतले हम।
बरस दर बरस उनका कुनबा, और अधिक बढ़ता जाता है।।
आदर्शों की लीलाओं का, मंचन मंचों तक सीमित भर।
धर्म साधना मंदिर मस्जिद, ढ़ोंग प्रपंचों तक सीमित भर।।
डूब रहा है सच का सूरज, मिथ्या का चढ़ता जाता है…
बरस दर बरस उनका कुनबा, और अधिक बढ़ता जाता है…
अंतस में रावण बसता है, अधरों पर श्री हरि का नारा।
कथनी में कुछ करनी में कुछ, दुहरा हुआ चरित्र हमारा।।
मुख पर चढे मुखौटों पर नित, एक नया चढ़ता जाता है…
बरस दर बरस उनका कुनबा, और अधिक बढ़ता जाता है…
कुछ प्रतिरूपों के जलने से, कब सच में जलता है रावण।
हम सब के मन में लालच के, साथ-साथ पलता है रावण।।
कभी द्वेष तो कभी घृणा का, रूप नया गढ़ता जाता है…
बरस दर बरस उनका कुनबा, और अधिक बढ़ता जाता है…
रावण का वध कैसे होगा, इस पर इतनी बात विचारो।
सबसे पहले निज अंतस में, बसे हुए रावण को मारो।।
झूठ बहुत शातिर हैं मुख पर, सच का मुख मढ़ता जाता है…
बरस दर बरस उनका कुनबा, और अधिक बढ़ता जाता है…
— सतीश बंसल