और सृजन हो गया
आज मेरी पहली किताब छपकर आई है, वो भी हिंदी अकादमी के आंशिक आर्थिक सहयोग से. हिंदी अकादमी के सहयोग का बहाना न बना होता, तो शायद मेरी ये खूबसूरत, प्रेरणात्मक कहानियां यों ही फाइल में पड़ी रहतीं. पर ये क्या केवल हिंदी अकादमी का ही सहयोग था? सच बात तो यह है, कि उस दिन फेसबुक पर मेरी अभिन्न सखी का वह प्रेरणादायक संदेश न आता, तो इस उपलब्धि का प्राप्त होना संभव ही नहीं था. वह संदेश था-
”सुप्रभात,
आपने लिखना क्यों छोड़ दिया?
शब्दों की खिड़कियां खुलने दीजिए.
कुछ लिखिए.
लिखती रहिए.
जिंदगी को उपहार दीजिए.
जिंदगी का उपहार लीजिए.
काम तो कभी फुरसत लेने ही नहीं देंगे.
अपने लिए समय छीनकर भी निकालना पड़ता है.
कुछ सीखिए, कुछ सिखाइए.
खुश रहिए, खुशियां बढ़ाइए.”
सखी के इस संदेश को मैंने बार-बार पढ़ा था, इस पर सोचा था. सच ही तो था! मेरे पास सबके लिए समय होता था, घर-परिवार के लिए, नौकरी के लिए, रिश्तेदारी और मित्रता के लिए, दुःख-सुख में साथ देने के लिए, बस मेरे खुद के लिए समय का निकलना बहुत मुश्किल था. मैंने एक कहानी लिखने के बाद लिखना छोड़ दिया. क्यों? मैंने सोचा.
ऐसा भी नहीं था, कि मेरी वह कहानी किसी को अच्छी नहीं लगी. कहानी बहुत प्रशंसित हुई थी. मैंने सखी के संदेश पर खूब मंथन किया, बस तभी मैंने ठान लिया था, कि थोड़ा समय टी.व्ही. देखने में से बचाऊंगी, थोड़ा मोबाइल से और लिखूंगी, खूब लिखूंगी.
मेरी कहानियां सृजित होनी शुरु हो गईं. चलते-फिरते कहानियां मिलने-बनने लगीं. मैं फेसबुक पर डालती रही, शाबाशी मिलती रही और मैं आगे बढ़ती रही.
तभी हिंदी अकादमी का विज्ञापन आ गया था. मैंने कहानियों का संकलन करके फाइल भेज दी. कुछ समय बाद ही परिणाम घोषित हो गया. परिणाम मेरे अनुकूल रहा. मुझे कहानियों के संकलन को छपवाकर निर्धारित समय में उनके पास कुछ किताबें भेजनी थीं. उसके लिए मुझे काफी आर्थिक सहयोग भी मिला था. किताब छपवाने के लिए घर में सबका सहयोग मिला और सृजन हो गया.
कहते हैं हर एक में कोई-न-कोई प्रतिभा होती है. किसी-किसी में यह सुप्त अवस्था में होती है. किसी की प्रेरणा से वह जगती है, फिर सो जाती है. कथा की नायिका को पुनः शाबाशी मिलने से वह उत्तिष्ठ और जागृत हो गई, ऐसे में सृजन का होना अवश्यम्भावी था.