दृढ़ता- भाग-2
विवेक का मन फूला नहीं समा रहा था। मन चाह रहा था कि पंख फैलाकर दूर नील गगन में उड़ जाए। और, बादलों से जाकर कहे कि…” सुनो बादलों, मेरे मन की इच्छा पूरी होने जा रही है! मेरे साथ साथ तुम भी नाचो गाओ खुशियां मनाओ!”.. जो इतने सालों से मन में दबी पड़ी थी, आज वह खुशी जैसे छलक कर बाहर आना चाहती है। सुबह सुबह तैयार हो रहा था अपने क्लीनिक जाने के लिए। आईने के सामने खड़ा होकर स्वयं को निहार रहा था, आज उसे आईने में कोई नया विवेक ही नजर आ रहा था!! और गुनगुना रहा था..”आज मौसम बड़ा बेईमान है.…. आज मौसम.. आने वाला कोई तूफान है…।”
“आज सुजाता क्लीनिक आने वाली है चेकअप के लिए।उससे खुलकर आज बात करनी है। उसे पता चलेगा तो खुशी से नाच उठेगी!! वर्षों से इस दिन का इंतजार था मुझे कि सुजाता के चेहरे पर खुशी के गुलाल ऐसे उड़े जैसे गालों पर गुलाब खिले हो।” वह सुजाता को दुखी नहीं देख सकता था बचपन से ही। आज उसकी झोली वह खुशी से भर देगा और कहेगा सुजाता तुम मेरी हो! “पर.. पर मैं कैसे शुरुआत करूंगा, क्या कहूंगा उससे, कुछ समझ में नहीं आ रहा है।”.…सपनों की दुनिया में खोया हुआ था विवेक पर उसे यह सोचने में बड़ा आनंद आ रहा था।
“साहब क्लिनिक आ गया!”… ड्राइवर ने कहा तो जैसे एक झटका लगा और वह सपनों की दुनिया से बाहर आ गया।
“हां.. हां..!!!”… थोड़ा सा शरमा गया वह और उतर कर क्लीनिक चला गया।
जैसे-जैसे समय नजदीक आ रहा था, विवेक के दिल की धड़कन तेज होती जा रही थी। बार बार आँखें दरवाजे की ओर उठ जाती थी। कानों को सुजाता की पग ध्वनि सुनने की बेसब्री से इंतजार था। हवा सुजाता के तन से सुगंध उड़ाकर ले आए और रोम रोम को महका जाए! सब्र का बांध जैसे टूटता जा रहा था! सामने कुछ मरीज बैठे हुए थे पर उसकी आंखें तो सुजाता को ही ढूंढ रही थी। अपने आप पर संयम बनाकर उसने एक एक कर मरीजों को जांचना शुरू कर दिया। आज शीघ्रता से सारा कार्य समाप्त कर उसे सुजाता के साथ लंच पर जाना है।
“मैं अंदर आ सकती हूं?”… किसी की मधुर आवाज कानों में आकर पड़ी और वह सकपका गया। नजरें उठाकर देखा तो सामने सुजाता खड़ी थी। वह सुजाता को देखा तो, देखता ही रह गया!!!आज उसे ऐसा लग रहा था जैसे सामने कोई नई सुजाता खड़ी है!
“क्या हो गया ? किस ख्याल में खोए हो, अन्दर आने की इजाजत नहीं है क्या?”… सुजाता ने चुटकी लेते हुए कहा।
“हां.. हां.. क्यों नहीं तुम्हारा ही तो क्लीनिक है ।आओ.. आओ.. अंदर आ जाओ, पूछने की क्या बात है!”… विवेक शरमाते हुए हड़बड़ी में कह गया।
“बैठ जाओ! सुजाता… तुम्हारी आज्ञा हो तो मैं मरीजों को पहले देख लूं। फिर आखिर में तुम्हारा नंबर आएगा। कर लोगे जरा इंतजार?”… विवेक ने शरारत भरी नजर से देखते हुए कहा।
“मजबूरी है, जब आ ही गए हैं दिखाकर ही जाना पड़ेगा, चाहे कितनी भी देर हो!!!!”…. सुजाता भी क्यों पीछे रहती, उसने भी हंसते हुए कहा।
“चलो, अब तुम्हारी बारी आ ही गई है।”… सारे मरीजों का जांच करने के बाद विवेक ने कहा।
“सब कुछ ठीक है।जो गोलियां मैंने लिख कर दी थी, सब खा रही हो ना या लापरवाही कर रही हो?.. विवेक ने सुजाता का जांच करने के बाद पूछा।
“हां.. हां… खा रही हूं! इतना विश्वास नहीं है मुझ पर? मैंने तो आंख बंद कर तुम पर भरोसा कर लिया, जो भी गोलियां लिख दी सब आंख मुंदके खा रही हूं।”… सुजाता ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया।
“गुड…वैरी गुड…इन्हीं गोलियों को आगे कंटिन्यू करो 1 महीने तक!”… विवेक ने बड़ी समझदारी से कहा।
“जैसी डॉक्टर साहब की आज्ञा! मैं डॉक्टर साहब की आज्ञा का उल्लंघन करने का दंड जानती हूं!”… सुजाता ने चुटकी ली।
घड़ी की ओर देखते हुए विवेक ने कहा…”सुजाता 2:00 बज गए हैं। तुम्हें भूख नहीं लग रही है क्या? मुझे तो बहुत भूख लग रही है, अगर तुम्हें कोई आपत्ति नहीं हो तो चलो हम किसी रेस्टोरेंट में बैठ कर बात भी कर लेंगे और खाना भी खा लेंगे साथ साथ।
सुजाता ने कुछ नहीं कहा सिर्फ सहमति में सिर हिला दिया। आज उसका भी मन कर रहा था थोड़ी देर विवेक के साथ समय बिताने का। और उससे कुछ मन की बातें करने का।
दोनों खाने के टेबल पर बैठे हुए थे। दोनों चुप थे। विवेक मन ही मन सोच रहा था कि कहां से बातें शुरू करूं और क्या क्या बातें करूं! चुप्पी तोड़ने के लिए विवेक ने ही बातें शुरू की…”सुजाता तुम्हें याद है मैं कैसे रोया करता था बचपन में तुम्हारे सामने! बचपन भी कितना भोला होता है ना। कुछ भी समझ में नहीं आता है।”
“हां.. सब याद है…पर अब तो हम बड़े हो गए हैं, कुछ बड़ों जैसी बातें भी कर लेते हैं। जैसे तुम्हारा क्लीनिक कैसा चल रहा है? तुम्हें यहां पर अच्छा लग रहा है कि नहीं। दिल्ली की बहुत याद तो नहीं आ रही है, मतलब दोस्तों की, आदि आदि”… सुजाता ने मुस्कुराते हुए कहा।
“सामने जो बैठी है वह भी तो मेरी दोस्त है। और सबसे पुरानी बचपन की, तभी तो मैं यहां खींचा चला आया वरना दिल्ली में ही क्लीनिक खोल लेता!”… विवेक ने शरारत भरी निगाहों से सुजाता को देखते हुए कहा।
विवेक की बातें सुजाता के दिल के तारों को छेड़ दिया, बचपन से मन में दबी पड़ी भावना जैसे जागृत हो गई! बचपन से ही मन ही मन विवेक को वह बहुत पसंद करती थी! उसके साथ खेलना, लड़ाई करना उसे बहुत अच्छा लगता था!जब वह रूठ कर बैठ जाती तो विवेक आकर उसे मनाता फिर वह हंस देती और विवेक के साथ खेलने चली जाती! सारी यादें उसके मन को गुदगुदा गई! और, वह थोड़ी सी शरमा गई और कहा…” अच्छा तो यह बात है यहां पर क्लीनिक खोलने का! मुझे पता होता तो पहले ही मना कर देती!”
विवेक को लग रहा था कुछ तो बात है सुजाता के मन में जो वह चाहकर भी नहीं कह पा रही है! या कहने से कतरा रही है। पर उससे और बर्दाश्त नहीं हो रहा था। उसने आज निर्णय कर लिया था कि बात करके ही जाना है। तो उसने आगे बात छेड़ दी….” सुजाता क्या मेरे मन में जो बात है वही बात तुम्हारे मन में भी है! सच सच बताना प्लीज आज झूठ मत बोलना।”
“क्या सच और क्या झूठ… मुझे तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है!” अनजान बनते हुए सुजाता ने कहा।
“यही कि मैं तुमसे प्यार करता हूं सुजाता! क्या तुम भी मुझसे प्यार करती हो?” और विवेक भावुक हो उठा।
सुजाता से कोई जवाब देते नहीं बन रहा था। वह असमंजस की स्थिति में थी क्या जवाब दे…. समझ में नहीं आ रहा था! फिर थोड़ी देर रुक कर शरमाते हुए कहा….”हां….हां… विवेक! पर…मैं डरती हूं की यह प्यार कहीं महंगा न पड़ जाए।”… सुजाता के माथे पर चिंता की लकीरें थी।
“कैसा डर सुजाता, मैंने तो अपने पापा से कह दिया है कि मैं शादी करूंगा तो सुजाता से, नहीं तो और किसी से नहीं करूंगा। पापा ने तो मुझे अनुमति भी दे दी है पर…. अभी मम्मी से बातें नहीं की है। मम्मी से बात करनी है।”… विवेक ने सुजाता को सांत्वना देते हुए कहा।
“पर…तुम मेरी परिस्थिति पर तरस खाकर तो शादी के लिए नहीं कर रहे हो? अगर ऐसा है तो मैं बिल्कुल तैयार नहीं हूं शादी के लिए। और अगर आंटी तैयार नहीं हुई तो? और फिर मेरे मम्मी पापा क्या चाहते हैं वह भी तो जानना जरूरी है। आज अगर हमने भावुकता में कोई कदम उठा लिया और कल सब लोग दुखी हो गए तो? कोई खुश नहीं हो पाया तो शादी टिक पाएगी क्या? मैं नहीं चाहती कोई भी मुझ पर तरस खाए। अगर ऐसा हुआ तो मैं बर्दाश्त नहीं कर पाऊंगी! आगे तुम जैसा चाहते हो सोच विचार करके ही कोई कदम उठाना। मैं चाहती हूं अंकल आंटी आकर मेरे मम्मी पापा से इस बारे में बातें करें ताकि उनके मन में क्या है यह भी स्पष्ट हो जाए!”… सुजाता ने गंभीरता से कहा।
सुजाता की बातें सुनकर विवेक इतना तो समझ ही गया था कि सुजाता स्वाभिमानी है…..उसे कोई कमतर समझे यह उसे कतई बर्दाश्त नहीं है! पर यह भी विवेक को आभास हो गया था की सुजाता के मन में उसके लिए प्यार है! सुजाता उसे पसंद करती है ! विवेक इसी बात से ही खुश हो गया था कि सुजाता उससे प्यार करती है!
“तुम मुझ पर भरोसा रखो सुजाता, जो भी होगा वह अच्छा ही होगा। मैं संभाल लूंगा सब कुछ, बस मेरे ऊपर एक बार विश्वास करो! तुम्हारा विश्वास मेरे लिए बहुत मायने रखता है!”.…विवेक ने सुजाता का हाथ अपने हाथों में लेकर कहा!”
“ठीक है विवेक….मुझे तुम पर भरोसा है। पर….अब लगता है हमें चलना चाहिए… मम्मी पापा मेरा लिए इंतजार कर रहे होंगे! देर हो जाती है तो वे चिंतित हो जाते हैं मेरे लिए। मैं उनको परेशान देख नहीं सकती…बचपन से ही उन दोनों को बहुत परेशान होते हुए देखा है मैंने अपने लिए।”..…सुजाता की आंखें नम हो गई!
“चलो मैं तुम्हें घर तक छोड़ कर फिर वापस आ जाऊंगा क्लीनिक में।”… और विवेक सुजाता का हाथ पकड़ कर….उसे सहारा देते हुए गाड़ी की ओर चल पड़ा…..।
पूर्णतः मौलिक-ज्योत्स्ना पाॅल।