गीत/नवगीत

कविता

बुझे दीपक से ज्योति माँगने कब कौन आता है

निशा घनघोर है चहुँ ओर
दिखाई कुछ नहीं देता
पथिक किस मार्ग पर जाएँ
सुझाई कुछ नहीं देता
निराशा व्याप्त है उर में
काल अश्रु बहाता है

बुझे दीपक से ज्योति माँगने कब कौन आता है

वंश-कुल, मान व संस्कार
की प्राचीरें ऊँची हैं
हर वैदेही के सम्मुख
हमने रेखाएँ खींची हैं
आज हर राम के भीतर
दशानन शीश उठाता है

बुझे दीपक से ज्योति माँगने कब कौन आता है

सहे मैंने युगांतर से
संसृति के घात-आघात
प्राण तो हर लिए तुमने
शेष केवल रहा श्लथ-गात
श्वासों का आरोह-अवरोह
जुगुप्सा ही जगाता है

बुझे दीपक से ज्योति माँगने कब कौन आता है

स्वार्थ की आँधी में घिरकर
कलुषित हुआ निष्कपट स्नेह
व्यंग्य के बाणों से बिंधकर
पंकिल हुई धवल सी देह
आशा का नन्हा-सा खग
विवशता से छटपटाता है

बुझे दीपक से ज्योति माँगने कब कौन आता है

आभार सहित :- भरत मल्होत्रा।

*भरत मल्होत्रा

जन्म 17 अगस्त 1970 शिक्षा स्नातक, पेशे से व्यावसायी, मूल रूप से अमृतसर, पंजाब निवासी और वर्तमान में माया नगरी मुम्बई में निवास, कृति- ‘पहले ही चर्चे हैं जमाने में’ (पहला स्वतंत्र संग्रह), विविध- देश व विदेश (कनाडा) के प्रतिष्ठित समाचार पत्र, पत्रिकाओं व कुछ साझा संग्रहों में रचनायें प्रकाशित, मुख्यतः गजल लेखन में रुचि के साथ सोशल मीडिया पर भी सक्रिय, सम्पर्क- डी-702, वृन्दावन बिल्डिंग, पवार पब्लिक स्कूल के पास, पिंसुर जिमखाना, कांदिवली (वेस्ट) मुम्बई-400067 मो. 9820145107 ईमेल- [email protected]