ग़ज़ल
इक यही मंजर दिखाई दे रहा है
हर तरफ़ बस ड़र दिखाई दे रहा है
हो रहा है मजहबों के नाम पर जो
सिर्फ आड़म्बर दिखाई दे रहा है
कह रहे हैं आप आलीशान जिसको
घर मुझे जर्जर दिखाई दे रहा है
जाविये का फ़र्क है, वो ईश मुझको
पर तुझे पत्थर दिखाई दे रहा है
आपसी टकराव का ये दौर ही तो
गैर को अवसर दिखाई दे रहा है
शीश हर दर पर झुकाकर थक गया हूँ
अब उसी का दर दिखाई दे रहा है
ऐब जबसे देखने ख़ुद के लगा मैं
हर बशर ईश्वर दिखाई दे रहा है
— सतीश बंसल