मन का मीत
चलते चलते जीवन डगर पर
मिले कई मीत किसी मोड़ पर,
चल दिए वो एक हंसी बिखेरकर
बन न सके जीवन का हमसफर।
बना भी कभी कोई हमराह तो
चला ना साथ देख लंबी डगर,
चूभेंगे पग में कांटे अनेक सोच
चल दिया राह में तन्हा छोड़ कर।
बढ़ाया ना हाथ किसी ने आकर
लगी ठोकर संभले स्वयंं उठकर,
सहलाया ना किसी ने घाव को
मरहम प्यार का लगा कर।
बहे जब नैनों से झर झर आंसू
बंधाया ना ढांढस आंसू पोंछकर,
दुखते रहे घाव बनके नासूर
रिसते रहे रात दिन रक्त की धार।
मुस्कुराते रहे वो दूर होकर खड़े
पास आकर जताया ना प्यार,
उठती रही दिल में सदा टीस
आता रहा भावनाओं का ज्वार।
उफनती रही प्यार की नदी
फंसी जीवन कश्ती बीच भंवर,
मांझी ना मिला जीवन नैय्या का
लगा देता जो नैया उसपार।
देखे रिश्ते – नातों के रंग अनेक
धर्म, जात- पात की देखी चलन,
भाई से भाई को लड़ते देखा
देखी बहन से बहन की अनबन।
मन के घाव ना दिखे किसी को
दिखे केवल लगे जो घाव, तन,
खड़ा ना हुआ कोई पास आकर
जड़ सी हो चली सबकी चेतन।
अपना दुखड़ा रोया सभी सदा
दूसरों के दर्द का ना हुआ भान,
आकर गले लगाया तब सबने
स्वयं पर जब पड़ी विपदा आन।
मीत ना मिला मन का कोई भी
दिखाते रहे सब झूठी शान,
झूठ का पर्दा हटा जब चेहरे से
असली चेहरे की तब हुई पहचान।
हारना कभी सीखा ही नहीं तो
हार को कैसे स्वीकार लेते,
गिरकर संभलना सीखा न होता
शीष अपना कैसे ऊंचा रखते।
जलाकर मन में साहस- दीप
स्वयं लगायी अपनी नैय्या पार,
साथ दिया मुझे लहरों ने जब
निकली कश्ती, छोड़ बीच भंवर।
दिया साथ सदा साहस ने मेरा
बनके रहा मेरे ‘मन का मीत’,
मीत बिन सूना जग है सारा
यही इस जग का शाश्वत रीत।
पूर्णतः मौलिक-ज्योत्स्ना पाॅल।