कविता

मन का मीत

चलते चलते जीवन डगर पर
मिले कई मीत किसी मोड़ पर,
चल दिए वो एक हंसी बिखेरकर
बन न सके जीवन का हमसफर।

बना भी कभी कोई हमराह तो
चला ना साथ देख लंबी डगर,
चूभेंगे पग में कांटे अनेक सोच
चल दिया राह में तन्हा छोड़ कर।

बढ़ाया ना हाथ किसी ने आकर
लगी ठोकर संभले स्वयंं उठकर,
सहलाया ना किसी ने घाव को
मरहम प्यार का‌ लगा कर।

बहे जब नैनों से झर झर आंसू
बंधाया ना ढांढस आंसू पोंछकर,
दुखते रहे घाव बनके नासूर
रिसते रहे रात दिन रक्त की धार।

मुस्कुराते रहे वो दूर होकर खड़े
पास आकर जताया ना प्यार,
उठती रही दिल में सदा टीस
आता रहा भावनाओं का ज्वार।

उफनती रही प्यार की नदी
फंसी जीवन कश्ती बीच भंवर,
मांझी ना मिला जीवन नैय्या का
लगा देता जो नैया उसपार।

देखे रिश्ते – नातों के रंग अनेक
धर्म, जात- पात की देखी चलन,
भाई से भाई को लड़ते देखा
देखी बहन से बहन की अनबन।

मन के घाव ना दिखे किसी को
दिखे केवल लगे जो घाव, तन,
खड़ा ना हुआ कोई पास आकर
जड़ सी हो चली सबकी चेतन।

अपना दुखड़ा रोया सभी सदा
दूसरों के दर्द का ना हुआ भान,
आकर गले लगाया तब सबने
स्वयं पर जब पड़ी विपदा आन।

मीत ना मिला मन का कोई भी
दिखाते रहे सब झूठी शान,
झूठ का पर्दा हटा जब चेहरे से
असली चेहरे की तब हुई पहचान।

हारना कभी सीखा ही नहीं तो
हार को कैसे स्वीकार लेते,
गिरकर संभलना सीखा न होता
शीष अपना कैसे ऊंचा रखते।

जलाकर मन में साहस- दीप
स्वयं लगायी अपनी नैय्या पार,
साथ दिया मुझे लहरों ने जब
निकली कश्ती, छोड़ बीच भंवर।

दिया साथ सदा साहस ने मेरा
बनके रहा मेरे ‘मन का मीत’,
मीत बिन सूना जग है सारा
यही इस जग का शाश्वत रीत।

पूर्णतः मौलिक-ज्योत्स्ना पाॅल।

 

*ज्योत्स्ना पाॅल

भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त , बचपन से बंगला व हिन्दी साहित्य को पढ़ने में रूचि थी । शरत चन्द्र , बंकिमचंद्र, रविन्द्र नाथ टैगोर, विमल मित्र एवं कई अन्य साहित्यकारों को पढ़ते हुए बड़ी हुई । बाद में हिन्दी के प्रति रुचि जागृत हुई तो हिंदी साहित्य में शिक्षा पूरी की । सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर एवं मैथिली शरण गुप्त , मुंशी प्रेमचन्द मेरे प्रिय साहित्यकार हैं । हरिशंकर परसाई, शरत जोशी मेरे प्रिय व्यंग्यकार हैं । मैं मूलतः बंगाली हूं पर वर्तमान में भोपाल मध्यप्रदेश निवासी हूं । हृदय से हिन्दुस्तानी कहलाना पसंद है । ईमेल- [email protected]