प्रेम मीन का
सच बतलाना तुम सागर
तुमसे मेरा क्या नाता है।
पास देख कर तुम्हें मगर
प्रेम उमड़ घुमड़ आता है।
समझा सर्वस्व तुम्हीं को मैंने
तुम में ही सब कुछ पाया है।
शैतान शिकारी से फिर तुमने
मुझको क्यों नहीं बचाया है।
अटूट प्रेम है मेरा तुम से
जीवन तुम में समाया है।
गति नहीं तुमको तज के
प्राणों से हाथ गँवाया है।
मैं पड़कर मोह में तुम्हारे
अपना सुख-दुख भूल गई।
एक आलिंगन पर तुम्हारे
अपना सब कुछ वार गई।
प्रेम तुम्हारे मैं अकंठ डूबी
छोड़ अपना घर द्वार आई।
समझा अपना तुमको ही
मैं जीवन अपना खो आई।
खेल समझ लहरों को मैंने
खेले अद्भुत खेल अनेक।
भुजबल के मधुर मोह में
देखे मधुरिम स्वप्न अनेक।
रक्षक तुम मेरे प्राणों के
क्यों मुझसे मुंह मोड़ लिया।
फेंका जब जाल मछुआरे ने
क्यों नहीं रस्ता रोक लिया।
रोका बहुत मुझको माँ ने
तू मत जा पास सागर के।
पर न मानी माँ की मैंने
जाने की मैंने ठानी मन में।
समझाया बहुत पिता ने भी
पर उनका अपमान किया।
छोड़कर सब संगी- साथी
तुमको पाने का ठान लिया।
न मानी थी बात माँ की
पिता का था अपमान किया।
सजा भुगतने उसी दंड की
देवों ने दर पर छोड़ दिया।
करते देव उसी की रक्षा
मातृ- पितृ करते सम्मान।
शुभाशीष ले गुरूओं का
करते जीवन का आयान।
अहसास कर गलती अपनी
दौड़ चली सरपट घर को।
चरणों में पिता के गिर पड़ी
करबद्ध क्षमा याचना को।
लग माता की छाती से
अपना दुख दूर किया।
माँ ने भी बड़े प्यार से
बेटी को अपना लिया।
आँसू से पश्चाताप के
धुल उसका सब दुख गया।
चरणों में माता-पिता के
पा उसने सब सुख लिया।
क्या महत्व है अनुभव का
मीन अब सब जान गई।
अनुभवी मात पिता का
कहना वह सब मान गई।
बुद्धि तीव्र होती पढ़ने से
न मिले किताबों में सब ज्ञान।
सीखता मानव अनुभव से
अनुभव से मिले अनोखा ज्ञान।
अंहकार में डूबी थी मैं
स्वयं को समझ रही ज्ञानी।
ठोकर लगते ही समझी मैं
मैं तो थी अति अज्ञानी।
करते जो रहकर जग में
मात-पिता का सम्मान।
उस नर को मिलता जग में
पुण्य कर्मों का वरदान।
दौड़ चली पास मित्रों के
झटपट सारी व्यथा सुनाई।
सुन कथा व्यथा मित्रों ने
अपने जीवन थी अपनायी।
मिली सीख दुर्बल मीन को
जीवन में लिया उसने उतार।
करूं न उस संग प्रेम को
नहीं है जिसका हृदय उदार।
सागर है अति गंभीर धीर
न समझा पर पवित्र प्रेम को।
देकर उस बहुरुपिये को सीख
छोड़ दिया बरसों के प्रेम को।
— निशा नंदिनी
तिनसुकिया, असम