घनी चादर
आंसुओं की घनी चादर में
जाने क्यों आज भी जिंदा हूँ ।
मचल रहा है बाबरा मन ,
रहगुजर राह की जैसे परिंदा हूँ ।
कोपलों पर खिलती हैं कलियाँ
हर दिन जैसे नई उम्मीद लिए ।
आजाद हूँ कहने को आज भी ,
जेल की गलियों की अजंता हूँ ।
पलकों में छिपाए हुए अरमान ,
होठों पर मुस्कराहट का नक्शा लिए
बीत गए मुरझाए हुए युगों मुझे ,
झूठी बनाबट भरी जैसे लिखावट हूँ ।
कहाँ है खुद की जिंदगी मेरी ,
गुमशुदा आज भी कहीं शरारत है ।
जीने का अंदाज भी शर्तों पर ,
जैसे मोम की कोई बेजान गुड़िया हूँ ।
— वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़