कविता – धूप का टुकड़ा
आज सुबह
धूप के टुकड़े से
मुलाकात हुई
कुछ बात हुई
मैंने कहा,
”रुई के फाहे जैसे
धूप के टुकड़े
तुम झिलमिल शामियाने जैसे
बड़े आकर्षक लग रहे हो
पहले तो कभी
तुम्हारा इतना सुंदर रूप
कभी दिखाई नहीं दिया
आज फुरसत से सजे हो
बड़े खूबसूरत लग रहे हो!”
धूप का टुकड़ा बोला,
”मैं तो हमेशा से ही ऐसा हूं
फिर खूबसूरती तो
देखने वाले की
आंखों में होती है
शायद आज तुम्हारी आंखें ही
खूबसूरती का पैमाना बनी हुई हैं
कजरारे काजल से सजी हुई हैं
तभी मैं
खूबसूरत शामियाना लग रहा हूं
तनिक रुको
तुम्हारी यह उपमा सुनकर
मैं भी मन में मंथन कर रहा हूं
सच तो है
मैं तो हूं ही शामियाना
आज तक मैंने ही
खुद को नहीं पहचाना
मेरे आते ही आसमान में
एक तिरपाल-सा लग जाता है
सारा संसार उसके नीचे सज जाता है
आज तुमने मुझे अपने आप से मिला दिया है
जीवन को देखने का
एक नया दृष्टिकोण दिखला दिया है
आओ हम तुम दोस्ती कर लें
एक दूसरे को अंक में भर लें
सिखाएं एक-दूसरे को खुश होने के गुर
एक दूसरे के कष्ट हर लें,
एक दूसरे के कष्ट हर लें,
एक दूसरे के कष्ट हर लें.
बहुत सुन्दर कविता लीला बहन . कभी मेरा मन खुश हो तो गार्डन की हरिआली का रंग और गूढ़ा दिखने लगता है .
प्रिय गुरमैल भाई जी, आपका कामेंट आने से हमारा मन भी बहुत खुश हो गया, इसलिए गार्डन की हरियाली का रंग और गूढ़ा दिखने लगा है. आपके आने से ब्लॉग में रोशनी भी हो जाती है.
कभी-कभी प्रकृति के अद्भुत नजारे मन मोह लेते हैं. सुबह उठते ही कमरे की खिड़की खोली तो धूप का टुकड़ा नजर आया, उसी ने कुछ-कुछ लिखवाया.