गज़ल
गज़ल
1212 -1122 -1212-22
तमाम उम्र हम सज़ा में गुनहगार रहे,
तमाम उम्र उठाये हैं नाज़ पत्थर के.
कभी किसी के अरमा हुये झलक मंजर ले
लिहाज़ बन उड़ाये हैं वाज़ अंदर के.
हर धड़कते पत्थर को लोग दिल समझते हैं
लगाम पकड़ घुमाये है साज़ मुकद्दर के.
हमारे क़त्ल का इल्जाम तुम्हारे सर है
दवाब में थे वो सुलगते बवंडर के.
सरों पे धूप की गठरी उठाये फिरते हैं
दिलों भरे जलवे दिलकशी चादर के.
मिसाल बन थे उम्र भर दफ़न सीने में
अहद सुने ख़ामोशी नज़र बंजर के.
हम चलते फिरते लोग नजारों से कम आंको
तभी लोग घूमते पकड़ हाथ अंतर के.
बता रहे हैं उजाले मुझे [रेखा] मेरे दर के।
चमक रहे हैं सितारे हो मुख्तसर के।।