कविता – इतना ज़रूर मैं चाहूँगा
कविता से मेरा कभी भी
कोई नाता न था
थोड़ा पढ़ना-लिखना
भले ही मुझे आता था
कभी खुशी में तो कभी ग़म में
थोड़ा गुनगुनाता था
कोरे पन्नों पर कुछ भी
लिख कर मैं रह जाता था.
यहाँ पर आकर इतना समझा
यह जो घमंड से भरपूर है
अगले ही पल चूर-चूर है
कौन किस पर इतरा रहा है
भले ही जन्नत की हूर है
आसमान यह आसमानी
जो पता नहीं कितना दूर है
दिखें भले ही अलग-अलग
सब में इसी का नूर है.
पढ़ने भेजा गया था मुझे
पता नहीं कितना पढ़ पाया हूँ
जाकर पता चलेगा वहाँ पर
लिया बहुत
पर क्या कुछ दे पाया हूँ
पास हुआ या फेल हुआ हूँ
जिसके लिए मैं आया हूँ.
मां की कोख से,
खाली हाथ मैं आया था
पर खाली हाथ नहीं जाऊंगा
इस जहां में कर्म करके
कर्मों का ही खाऊंगा
कर्मों और दुआओं को ही
संग अपने ले जाऊंगा
खाली हाथ नहीं जाऊंगा.
जहां है मेरा जीवन बीता
वहीं की मिट्टी मैं बन जाऊं
इतना ज़रूर मैं चाहूँगा
इतना ज़रूर मैं चाहूँगा.
— रविंदर सूदन
रविंदर भाई की कविता बहुत सुन्दर लगी लीला बहन .
प्रिय गुरमैल भाई जी, यह जानकर अत्यंत हर्ष हुआ, कि आपको रविंदर भाई की कविता बहुत सुन्दर लगी. आजकल रविंदर भाई की कविता कमाल करने लग गई है. पोस्टर्स में और प्रतिक्रियाओं में उनकी कविता निखार ला रही है.
प्रिय ब्लॉगर रविंदर भाई जी, कितनी कमाल की कविता लिखी है आपने! अत्यंत सारगर्भित है. कविता क्या है, मानो पूरा जीवन-दर्शन है. इसका वर्णन-विश्लेषण करना असंभव है, फिर भी थोड़ी कोशिश करके देखते हैं.
कविता से आपक कभी भी
कोई नाता न था
लेकिन कविता कमाल की लिखते हैं,
यहाँ पर आकर इतना समझा
यह जो घमंड से भरपूर है
लेकिन आप घमंड से दूर हैं,
पढ़ने भेजा गया था आपको
पता नहीं कितना पढ़ पाए हैं
लेकिन सबको पढ़ाते हैं,
आध्यात्मिकता से रहना सिखाते हैं,
विनम्रता से आप भरपूर हैं,
कर्मों का ही खाने वाले
कर्मों और दुआओं से सराबोर हैं,
जहां है आपका जीवन बीता
वहीं की मिट्टी मैं बन जाने की चाह से
हुई आपके जीवन की सुंदर भोर है.
इतनी सुंदर-सदाबहार कविता के लिए बहुत-बहुत बधाइयां.