धरती का क्रंदन
आज फिर कांप उठी धरती
देख वह हृदय विदारक दृश्य,
अबोध बालिका शिकार हुई
हाथ, नर पिशाच,निरा अस्पृश्य।
सुन बालिका का भीषण चित्कार
हवाएं भी हो गई थी विह्वल,
कांप उठी थी चारों दिशाएं
सुन चित्कार, वह हुई विकल।
एक दस्यु बलशाली के हाथों
लाचार थी एक अबोध निर्बल।
प्यार भरी मीठी बोली से उसने
मासूम के साथ किया बड़ा छल।
रो पड़ा देख यह दृश्य, गगन
झर झर बरसाए उसने अश्रु नीर,
धरती बेबस निशब्द हुई, देख
अबोध की दुर्दशा और पीर।
हवा भी हो गई थी स्तब्ध
रोक रखी थी उसने अपनी सांस,
पहुंची जब चित्कार की ध्वनि
उसके कानों के आस- पास।
कहा धरती ने कर के क्रंदन-
“कब तक सहूंगी मैं यह त्रास,
बुझती नहीं है इन असुरों की
क्यों काम वासना की प्यास?
क्यों नहीं जागती इन में
मानव होकर भी मानवता?
क्यों दिए असुरों को जन्म प्रभु!
क्यों भर दिए इनमें नीचता?
किया शर्मिंदा रिश्ते नातों को
मानवता हुई फिर शर्मसार,
अब ढोना कठिन है बहुत ही
विश्वास के लाशों का भार।
क्यों उठाऊं मैं बोझ इनका
मेरी कोख को करूं कलुषित?
इनके दूषित रक्त से क्यों करूं
मैं अपने ही तन को दूषित?
जीने का अधिकार नहीं है इनको
किया जाए उचित दंड से दंडित,
उनके सम्मान को मिले सुरक्षा
जो है जग में महिमा मंडित।
होगा ना जब तक असुरों की
मानसिकता का शुद्धीकरण,
रुकेगा ना तब तक धरा पर
बालिका,नारी का चीर हरण।”
धरती कांपी, अंबर कांपा
कांपा हवा का भी तन,
किस माटी से बना है मानव तू
एक बार भी कांपा न तेरा मन!!!
पूर्णतः मौलिक- ज्योत्सना पॉल।